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________________ कान्त पर अभिमत (२) 'अनेकान्त' के दो अंक मिले। बहुत सुन्दर प्रयास है । सब आपके प्रयत्नों का फल है। तो अच्छा है। । (१) 'अनेकान्त' मासिक पत्र के मैंने कई अंक देखे हैं। यह पत्र लगातार जैन सिद्धान्त-सम्बन्धी उच्चकोटि की सामग्री उपस्थित करता है जो भारतीय संस्कृति के मूल्यांकन में विशेष रूप से सहायक होती है। इस पत्र की मैं उत्तरोतर उन्नति चाहता हूँ। -डा० बाबूराम सक्सेना हिन्दी निदेशालय, दिल्ली । इसी तरह निकालते रहें -सेठ बीप्रसाद जी सरावगी, पटना (३) 'अनेकान्त' के अंक देखे अंक उत्तरोत्तर सुन्दर और उपनरोगी होते जा रहे हैं। विश्वास है वह समय दूर नहीं, जब अनेकान्त एक अच्छी शोध पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा । लक्ष्मीचन्द जैन एम० ए०, कलकत्ता (४) आपके भेजे अनेकान्त के अंक प्राप्त हुए। मैने उन्हें अक्षरशः पढ़ा है । लेख उत्तम हैं । पत्र आपका ख्याति प्राप्त है । अनेकान्त गवेषणापूर्ण लेखों के लिए प्रसिद्ध है । आप सतत् उन्नति कर रहे हैं । इससे मुझे प्रसन्नता है ! - पं० माणिकचन्द न्यायाचार्य, फिरोजाबाद (५) 'अनेकान्त' के दो अङ्क प्राप्त हुए। वर्षों से बन्द पड़े इस अनेकान्त के पुनः प्रकाशन की व्यवस्था कर आपने इतिहास और पुरातत्त्व प्रमियों का वस्तुतः उपकार किया है। प्रस्तुत दोनों ही अङ्क पठनीय सामग्री से परिपूर्ण हैं। इसके सभी सम्पादक अध्ययनशील एवं अन्वेषण प्रिय विद्वान् है । मुझे श्राशा है आपकी निगरानी में पत्र बराबर प्रगति करता हुआ नियमित रूप से प्रकाशित होता रहेगा । - पं० चैनसुखदास न्यावतीर्य वास्तव में इस युग में (६) जून सन् १९६२ की दूसरी प्रति प्राप्त हुई । अनेकान्त अपने ढंग की अनूठी पत्रिका है। ऐसी पत्रिका की जैन समाज को आवश्यकता थी । छपाई, कागज, लेख सब उत्तम हैं । मैं इसका स्वागत करता हूँ । पत्रिका के सम्पादक तथा प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। मेरी कामना पत्रिका सतत् उन्नति करती रहे । - पं० रामलाल जैन, वंद्य शास्त्री स्पेशल रेलवे मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, अलीगढ़ है (७) 'अनेकान्त' का जून का श्रङ्क पढ़कर परम प्रसन्नता हुई। प्रमुख पृष्ठ का चित्र भी एक नवीनीकरण की भावना को लिए पत्र के नाम के अनुरूप ही लगा सुयोग्य सम्पादकों द्वारा सुचारु रूप से सम्पादित होकर और नियमित रूप से समय पर प्रकाशित होकर अनेकान्त अपने धर्म तथा समाज साहित्य और संस्कृति की सेवा करने में उतना समर्थ हो जितना भी उसे शक्य और सम्भव हो । यही कामना है । -लक्ष्मीचन्द जैन सरोज' एम. ए. रतलाम (८) 'अनेकान्त' के प्रङ्क पढ़े । अतीव आनन्द मिला। जैन शोध के क्षेत्र में ऐसे एक पत्र की आवश्यकता थी । श्रापने अनेकान्त को पुनर्जीवन देकर पुण्य का ही कार्य किया है। इससे अनुसन्धित्सु और साधारण जन दोनों ही लाभान्वित होंगे। अनेकान्त से भारतीय संस्कृति के लुप्त पहलू प्रकाश में आ सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। मैं उसकी सतत उन्नति की कामना करता हूँ । - डा० ए० के० 50 दीक्षित, बड़ौत (e) आपके सत्प्रयत्नों से अनेकान्त पत्रिका फिर से अपने पूरे वैभव के साथ प्रकाशित हो रही है, अत्यन्त प्रसन्नता हुई । परम पूज्य महाराज श्री समन्तभद्र स्वामी जी ने अतिशय आनन्द व्यक्त करते हुए आपके इस स्तुत्य उप क्रम को हृदय से अभिनन्दन एवं अनेक शुभाशीर्वाद लिखने को कहा है। हम सब गुरुकुलवासी आपके इस सत्प्रयत्न की सराहना करते हुए उसके लिए हृदय से सफलता चाहते हैं और पापको बधाई देते हैं। :- माणिकचन्द भिसीशर प्रिन्सिपल, बाहुबली विद्यापीठ
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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