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अमेकांत
वर्ष १५
नायिका के 'पेंडुलम' हो जाने की बात नहीं आ पाई है। रह रहा हो । तीर्थकर नेमीश्वर वीतरागी होकर निराकुयद्यपि राजुल का 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ लता पूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं। किन्तु राजुल उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं को शंका है, जब सावन में घनघोर घटायें जुड़ पायेंगी, कि उसकी गर्मी से जड़काले में लुयें चलनी लगी हों। चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, राजुल अपनी सखी से कहती है, "नेमिकुमार के बिना दामिनी दमकेगी और पुरवाई के झोंके चलेंगे, तो वह सुख जिय रहता नहीं है । हे सखी ! देख मेरा हृदय कैसा तच पूर्वक तप न कर सकेंगे। पौस के लगने पर तो राजुल रहा है। तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यों की चिन्ता और भी बढ़ गई है। उसे विश्वास है कि पति नहीं । मेरी विरह जन्य उष्णता कपूर और कमल के पत्तों का जाड़ां बिना रजाई के नहीं कटेगा । पत्तों की धुवनी से से दूर नहीं होगी। उनको दूर हटा दे। मुझे तो 'सियरा तो काम चलेगा नहीं। उस पर भी काम की फौजें इसी कलाधर' भी 'करूर' लगता है। प्रियतम प्रभु नेमिकुमार ऋतु में निकलती हैं, कोमल गात के नेमीश्वर उससे लड़ के बिना मेरा हियरा' शीतल नहीं हो सकता'।" पिय के न सकेंगें। वैसाख की गर्मी को देखकर राजुल और भी वियोग में राजुल भी पीली पड़ गई है। किन्तु ऐसा नहीं अधिक व्याकुल है; क्योंकि इस गर्मी में नेमीश्वर को प्यास उदय हुआ कि उसके शरीर में एक तोला मांस भी न रहा हो लगेगी, तो शीतल जल कहाँ मिलेगा, और तीव्र धूप से तचते विरह से भरी नदी में उसका हृदय भी बहा है, किन्तु पत्त्थरों से उनका शरीर दग जायेगा। उसकी आंखों से खून के मांसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्ता भेंट कर ही होगी, किन्तु उसके हाड़ सूख
___ कवि लक्ष्मी बल्लभ का 'नेमिराजुल बारहमासा' भी कर सारंगी कभी नहीं बने ।
एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृति के
रमणीय सन्निधान में विरहणी के व्याकुल भावों का सरस बारह मासा
सम्मिश्रण हुमा है, "श्रावण का माह है, चारों भोर से नेमीश्वर और राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में
विकट घटायें उमड़ रही हैं । मोर शोर मचा रहे हैं । आसबारहमासों की भी रचना हुई है। उन सब में कवि विनोदी
मान में दामिनी दमक रही है। यामिनी में कुम्भस्थल जैसे लाल का 'बारहमासा' उत्तम है। प्रिया को प्रिय के सुख के
स्तनों को धारण करने वाली भामिनियों को पिय का संग प्रनिश्चय की प्राशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख से
भा रहा है। स्वाति नक्षत्र की बूंदों से चातक की पीड़ा किरन किधी नाविक-शर-तति के, ज्यों पायक की झलरी ।
१. पिया सावन में व्रत लीजे नहीं,
घनघोर घटा जुर आवंगी। तारे हैं अंगारे सजनी, रजनी राकस दल री॥तहां०॥२॥
चहुँ ओर ते मोर जु शोर करें, देखिए वही, ४५ वा पद, पृ० २५
वन कोकिल कुहक सुनावंगी। १. नेमि बिना न रहे मेरो जियरा।
पिय रैन अन्धेरी में सूझ नहीं, हेर री हेली तपत उर कैसो।
कछु दामिन दमक डरावंगी। लावत क्यों निज हाथ न नियरा ॥१॥ पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, करि करि दूर कमल दल,
छिन में तप तेज छुड़ावैगी॥ लगत करूर कलाधर सियरा ॥नेमि०॥२॥
कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमि राजुल का भूघर के प्रभु नेमि पिया बिन,
बारहमासा संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, शीतल होय न राखुल हियरा ॥नेमि।।३।।
कलकत्ता, ४२॥ पद्य, पृ० २४ । देखिए वही, २० वा पद, पृ० १२ २. देखिये वही, १४वां पद, पृ०६, और मिलाइये जायसी
२. देखिये वही, १४ वां पद्य, पृ० २७ । के नागमती विरह वर्णन से ।
३. देखिए वही, २२ वां पद्य, पृष्ठ २६ ।
लगन