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बर्ष १५
रहितः' लिखा । महचन्द ने भी अपने दोहापाहुड़ में निर्मल जल में तारानों का समूह प्रतिबिम्बित होता है।' निष्कल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है । शरीर किन्तु त्रिभुवन में जिनदेव की व्याप्ति कुछ विचार का रहित का अर्थ है-निःशरीर, देहरहित, प्रस्थूल, निराकार, विषय है । त्रिभुवन का अर्थ है-त्रिभुवन के रहने वालों प्रमूर्तिक, अलक्ष्य । प्रारम्भ में योगीन्दु ने इसी 'निष्कल' का घट-घट । उसमें निर्गुण या निप्कल ब्रह्म रहता है । को 'निरजन' कह कर सम्बोधित किया है । उन्होंने लिखा निष्कल है पवित्र और घट-घः है अपवित्र-कलुष और है-जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न मल से भरा । कुछ लोगों का कथन है कि गन्दगी से युक्त स्पर्श, न जन्म और न मरण वह निरञ्जन कहलाता है। जगह में वह ब्रह्म नही रह सकता, अत. पहले उसको तप, निरञ्जन का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है । वैसे साधना या संयम किसी भी प्रक्रिया से शुद्ध करो तब वह 'निष्कल' के अनेक पर्यायवाची है। उनमें आत्मा, सिद्ध, रहेगा अन्यथा नहीं। कबीर ने निर्गुणराम की शक्ति में जिन और शिव का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है। पूरा विश्वास किया और कहा कि उसके बसते ही कलुष मुनि रामसिह ने समूचे दोहा-पाहुड़ में केवल एक स्थान स्वतः ही पलायन कर जाता है। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा पर 'निर्गुण' शब्द भी लिखा है । उन्होंने उसका अर्थ किया "ते सब तिरे राम रसवादी । कहे कबीर बूडे बकवादी।" है-निलक्षण और नि संग । वह 'निष्कल' से मिलता उनकी दृष्टि में विकार की लहरों से तरगायित इस संसारजुलता है।
सागर में से पार होने के लिए राम रूपी नया का ही सहारा कबीर की 'निर्गुण में गुण और गुण में निर्गुण' वाली
है । कबीर से बहुत पहले मुनिरामसिंह ने भीतरी चित्त के बात अपभ्रश के काव्यों में उपलब्ध होती है। योगीन्दु ने
मैल को दूर करने के लिए निरंजन को धारण करने की लिखा-जसु मन्भंतरि जगु वसह जग-अभंतरि जो जि।'
बात कही थी। उन्होंने यह भी लिखा कि जिसके मन में इसी भांति मुनि रामसिंह का कथन है-तिहुयणि दीसइ
परमात्मा का निवास हो गया, वह परमगति पा लेता देउ जिणु जिणवरि तिहुवशु एउ ।' अर्थात् त्रिभुवन
है। उनके कथनानुसार जिसके हृदय में भगमन् जिनेन्द्र में जिनदेव दिखता है और जिनवर में यह त्रिभुवन । जिन
मौजूद है, वहां मानो समस्त जगत ही संचार करता है । वर में त्रिभुवन तो दिख सकता है, ठीक वैसे ही जैसे ३. तारा-यणु जलि बिबियउ णिम्मलि दीसइ जेम । २. देखिए परमात्मप्रकाश, ११२५ की ब्रह्मदेव कृत
अप्पए णिम्मलि बिबियउ लोयालोउ वि तेम ॥ संस्कृत टीका, पृ. ३२।।
परमात्मप्रकाश, १११०२, पृ० १०६ जासु ण वशु ण गंधु रसु जासु ण सदु ण फासु ।
४. रसना राम गुन रमि रस पीजै । गुन प्रतीत निरमो. जासु ण जम्मगु मरणु ण विणाउ गिरजगु तासु ।।
लिक लीजै॥ निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई । जा मुमिरत सुधि-बुधिपरमात्म प्रकाश, १३१६, पृ० २७ ४. हउं सगुगी पिउ गिग्गुणउ जिल्लक्खगु णीसंगु ।
_मति पाई॥ एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहि अंगु ।
विष तजि राम न जपसि प्रभागे। का बड़े लालच पाहुड दोहा, १००वां दोहा, पृ० ३०
के लागे। १. जसु प्रभंतरि जगु वसइ जग-अभंतरि जो जि।
ते सब तिरे रामरसस्वादी । कहै कबीर बूड़े बकबादी। जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउसोजि
कबीर ग्रन्थावली, पद ३७५
५. अन्भिंतरचित्ति वि मइलियड बाहिरि काई तवेण । परमात्मप्रकाश, ११४१, पृ० ४५
चिति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ।। २. तिहुयणि दीसइ देउ जिणु जिणवरि तिहुवणु एउ ।
पाहुड़ दोहा, ६१वां दोहा, पृ० १८ जिणवरि दीसइ सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेउ॥
६. जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलई चित चवेवि । पाहुडदोहा, ३६वां दोहा, पृ० १२ सो पर पावइ परमगइ अट्ठई कम्म हणेवि ॥६६॥