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________________ किरण २ जैन अपभ्रंश का मध्तकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव हिन्दी का भक्ति-काव्य दो भागों में विभक्त है- सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी थे। कबीर पर जाने निर्गुणमक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा । निर्गुण-भक्ति और अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा घारा के दो भेद हैं- ज्ञानाश्रयी-शाखा और प्रेमाश्रयी-शाखा। था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्ट । कबीरदास की इसी भांति सगुण भक्ति धारा भी कृष्ण-काव्य और राम- सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसको स्वीकार किया। उन्होंने अनुकाव्य के रूप में बंटी हुई है। इनमें निर्गुण भक्ति काव्य भूति के माध्यम से उसको पहचाना । अनेकान्त के पीछे जैन अपभ्रंश के दूहाकाव्य से प्रभावित है, ऐसा मैं मानता छिपे सिद्धान्त को न किसी ने समझाया और न उनका उस हूँ। दोनों की अधिकांश प्रवृत्तियाँ समान हैं। इसीलिए सिद्धान्त से कोई अर्थ ही था। कबीरदास सिद्धान्तों के डा. हीरालाल जैन ने लिखा था, "इनमें वही विचार-स्रोत घेरे में बंधने वाले जीव नहीं थे । खैर, कबीरदास ने उस पाया जाता है, जिसका प्रवाह हमें कबीर की रचना में सुगन्धि को पसन्द किया जो सर्वोत्तम थी, वह कहाँ से आ प्रचुरता से मिलता है।" डा. रामसिंह तोमर का भी रही थी, किसकी थी, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। कथन है कि, "जो हो हिन्दी-साहित्य में इस रहस्यवाद आज वह हमारे विचार का विषय अवश्य है। मिश्रित परम्परा के आदि प्रवर्तक कबीरदास है और उन कबीरदास पर वैसे तो न जाने कितने सम्प्रदायों का की शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन रचनाओं में प्रभाव है, प्राचार्य क्षितिमोहन सेन ने इसी को लेकर प्राप्त होता है।" लिखा था कि कबीरदास की भूख सर्वग्रासी है', किन्तु कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे । 'निर्गुण' का अर्थ उनमें नाथ और मूफी सम्प्रदायों को प्रमुखता दी जाती है। है - गुणातीत । गुण का अर्थ है-प्रकृति का विकार मैं नाथ-सम्प्रदाय का सम्बन्ध जैन परम्परा से मानता हूँ। सत्त्व, रज और तम । संसार इस विकार से संयुक्त है और मेरे डी.लिट. के शोध-निबन्ध में यह मान्यता सप्रमाण ब्रह्म रहित । किन्तु कबीरदास ने विकार-संयुक्त संसार के पुष्ट की जायगी। इतना तो डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने घट घट में निर्गुण ब्रह्म का वास दिखा कर सिद्ध किया है मान ही लिया है कि नाथसम्प्रदाय में जो बारह-सम्प्रदाय कि 'गुण' 'निर्गग' का और 'निर्गुण' 'गुग' का विरोधी अन्तर्मुक्त किए गए थे, उनमें 'पारस' और 'नेमि' सम्प्रदाय नहीं है। उन्होंने "निरगुन में गुन और गुन में निरगुन" भी थे। दोनों जैन थे । और इसी कारण नाथ सम्प्रदाय में को ही सत्य माना। अवशिष्ट सब को धोखा कहा। अनेकान्त का स्वर मौजूद अवश्य था, भले ही उसका रूप अर्थात् कबीरदास ने सत्त्व, रज, तम के राहित्य की अपेक्षा अस्पष्ट रह गया हो। ब्रह्म को निर्गुण और सत्त्व, रज, तम रूप विश्व के कणकग में व्याप्त होने की दृष्टि से सगुण कहा । उनका ब्रह्म ऐसा यह ही अनेकान्त का रवर अपभ्रंश के जैन दूहा-काव्य यह ही अनेकान्त का रवर व्यापक था-जो भीतर से बाहर और बाहर से भीतर तक में पूर्णरूपसे वर्तमान है। कबीर ने जिस ब्रह्म को फैला था। वह प्रभाव रूप भी था और भावरूप भी, निराकार 'निर्गुण' कहा है, योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश' में उसे ही भी था और साकार भी, द्वैत भी था और अद्वैत भी। 'निष्कल' संजा से अभिहित किया गया था । 'निष्कल' की स्पष्ट है कि कबीर का ब्रह्म अनेकान्तात्मक था। जैसे परिभाषा बताते हुए टीकाकार ब्रह्मदेव ने 'पञ्चविध-शरीर अनेकान्त में दो विरोधी पहलू अपेक्षाकृत दृष्टि से निभ ४. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, हिन्दी ग्रन्थ १. देखिए महचन्द कृत पाहुडदोहा, भामेर शास्त्र भण्डार रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, नवम्बर १९५५, पू० २०४ जयपुर की हस्तलिखित प्रति, दोहा नं. ३२८ । -५, संतो, धोखा कानूं कहिये २. डा० हारालाल जैन, अपभ्रश भाषा प्रौर साहित्य गुण में निरगुण निरगुण में गुग, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ५०, अंक ३-४, बाट छांडि क्यूं बहिये? पृ०,१०७। कबीर ग्रन्थावली, पद १८० । ३. डा. रामसिंह तोमर, जैन-साहित्य की हिन्दी साहित्य प्राचार्य क्षितिमोहनसेन, कबीर का योग, कल्याण, को देन, प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ४६७ । योगांक, पृष्ठ २६६।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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