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किरण ५ बडनायक गंगराज
२२७ चोल सेनानायक उपयोग करने लगे। वंश की अपेक्षा अपने किसी भी प्रकार बाधक नहीं बन सकती है, इस उत्तम पाठ धर्म की हानि को गंगराज का मन न सह सका, माचंदार्क को अनायास सीख सकते हैं । यद्यपि जैनधर्म महिंसावादी स्थायी रहने वाले देवालय जिनालयों की हानि को देखकर है। फिर भी उसने अपने क्षात्र-धर्म को कभी विस्मरण परम मास्तिक गंगराज को असीम दु.ख होना स्वाभाविक नहीं किया । गृहस्थों की बात जाने दीजिये । सर्वसंग परिही है । सबों में धर्मबुद्धि पंदा कर परमानन्द एवं शांति त्यागी मुनियों ने भी राज्य स्थापना में सहर्ष भाग लिया को देने वाली देवमूर्तियों को तोड़कर अपने अंध धर्मप्रेम है। होयसल राज्य को स्थापित करने वाले सुदत्त मुनि को प्रकट करने वाले धर्मान्धों को पूर्णत. नाश करने का और गंगराज्य को स्थापित करने वाले सिंहनन्दी ये दोनों मन गंगराज में पैदा होना अलौकिक नहीं है। गंगवाडि मुनि थे । राष्ट्रकूट नरेश नृपतुंग अथवा अमोघवर्ष के को जीत कर वहां पर चोलों के अत्याचार से जीर्ण जिना- श्रद्धेय गुरु आचार्य जिनसेन थे। तात्पर्य यह है कि कर्णाटक लयों का उद्धार कर फिर गंगवाडि की कीर्ति को फैलाने के शासकों के प्रास्थानों में जैन साधुओं का विशेष आदर की शपथ गंगराज ने ली वह यथार्थ थी। इस शपथ ने ही था। कर्णाटक के शासकों को सदा जैन साधुनों की मदद गंगराज को चोलों पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित रहने से उन्होंने धर्म को न भूल कर उसी की नींव पर किया। यह जैनधर्म के परम भक्त पूणिसमय्य, मरियण्ण, राज्य स्थापित कर धर्म से राज्य किया। जैनशासकों के भरत आदि सेनानायकों को भी सम्मत हुआ। दण्डनायक द्वारा जैनेतर धर्मों को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का भरत गण्डविमुक्त सिद्धांतदेव का शिष्य था। दण्डनायक उदाहरण इतिहास में हमें कहीं भी नहीं मिलता है । जैनेमरियण्ण भरत का बड़ा भाई था। भरत ने अनेक धर्म- तर शासकों के द्वारा जैनधर्म को हानि पहुँचाने के उदाकार्यों को किया था। इसने गंगवाडि में दो जिन मन्दिरों हरण हमें एक-दो नहीं, अनेक मिलते हैं। खैर, यह विषका जीर्णोद्धार कराया और ८० नवीन मन्दिरों को यांतर है । वस्तुतः सम्राट चंद्रगुप्त, खारवेल, कुमारपाल, बनवाया।
मासिह, नृपतुंग, वस्तुपाल, तेजपाल, आदि जैन शासकों
ने संघर्षमय भयंकर युद्धो में विक्रमपूर्वक भाग लेकर प्रस्तु, गंगराज की तलकाड की विजय प्राचंद्रार्क
हमारे भारतवर्ष के गौरव को बढ़ाया है। जैन शासकों के अमर रहेगी। गंगराज ने धर्म-सेवा एवं देश-सेवा दोनों
शासनकाल में भारतवर्ष पराधीन नहीं हुआ था। इसलिए को एकनिष्ठा से करके राष्ट्र के सामने अपना प्रादर्श उप- बौद्ध एवं जैनों की अहिंसा से भारतवर्ष पराधीन हुआ, यह स्थित किया है। इससे वह, धर्मभक्ति, देशभक्ति में कहना सर्वथा निराधार है।
"मिथ्यात्व के उदय से प्राणियों को यहां तक दृष्टिभ्रम हुमा करता है कि वे अपनी पराजय को जय समझते हैं। वे कवायों को जीतने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु खुब कवायों से जीते जाते है और फिर भी समझते हैं कि हम कवायों को जीत रहे हैं।"
सहायता वीर सेवा मन्दिर के संयुक्त मंत्री बाबू प्रेमचन्दजी के सुपुत्र बा० हरिश्चन्द्रजी का विवाह संस्कार सुश्री संतोष कुमारी के साथ सानन्द सम्पन्न एमा। विवाहोपलक्ष में निकाले एबान में से ३१) रुपया अनेकान्त की सहायता प्राप्त हमा, इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।
-व्यवस्थापक अनेकान्त