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________________ 'चर्चरी' का प्राचीनतम उल्लेख श्री डा० दशरथ शर्मा अगस्त १९६२ के 'अनेकान्त' में डा. हरीश ने 'सम- मदनिका-दुवदीखंड क्खु एदं। (प्रथमाङ्कः) । इनमें राइच्च-कहां के कुछ अवतरणों को देकर, उन्हें चर्चरी के पहले अवतरण से स्पष्ट है कि चर्चरी के साथ मृदुमृदङ्ग की प्राचीनतम उल्लेख मानते हुए, चर्चरी के स्वरूप को सम- ध्वनि भी रहती है। दूसरे अवतरण में स्वच्छन्द मर्दल झाने का प्रयत्न किया है। प्रयत्न प्रशस्य है। किन्तु ये (मृदङ्ग-विशेष) की ध्वनिसे उद्दाम चर्चरी के शब्दसे रथ्याओं अवतरण 'चर्चरी' के प्राचीनतम उल्लेख नहीं हैं। श्री के मुखरित होने का वर्णन है । तीसरे अवतरण में नृत्य के हरिभद्रका समय सुपुष्ट प्रमाणों के आधार पर लगभग साथ 'द्विपदीखण्ड' के गायन को विदूपक 'चर्चरी' समझ सन् ७०० से ७७० ई. तक रखा जा सकता है। 'समरा- बैठता है। इसमें गाने वाली केवल दो चेटियां हैं, कोई इच्चकहा' की रचना शायद श्री हरिभद्र ने सन् ७४० या बड़ी टोली नहीं। ७५० के मासपास की हो । इससे लगभग एक सौ वर्ष पूर्व कुवलयमाला में वर्णित 'चर्चरी' पर हम अन्यत्र लिख कान्यकुब्जाधीश्वर श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका लिखी चुके हैं। अमरकोश में चर्चरी शब्द विद्यमान है। कर्पूरजा चुकी थी। उसके कुछ अवतरण हम नीचे दे रहे हैं। मञ्जरी में चर्चरी का खूब विशद वर्णन है। समराइच्च इनसे चर्चरी का वास्तविक रूप और स्पष्ट हो सकेगा। कहा के दो अवतरणों का डा. हरीश ने निर्देश किया ही अवतरण है। किन्तु 'उनके हिन्दी अनुवाद से हम सर्वथा सहमत नहीं (क) यौगन्धरायण:-'अये मधुरमभिहन्यमान-मदु- हैं। 'समासन्नचारिणी' का अर्थ "पास में बैठी हुई भाग मृदङ्गाऽनुगतसङ्गीतमधुरः पुरः पोराणामुच्चरति 'चर्चरी' लेती हुई" न करके "पास से निकलती हुई" करना चाहिए। ध्वनिः । (प्रथमाङ्क) यही अर्थ "अम्हाण चच्चरीए समासन्नं परिव्वयइ" से स्पष्ट (ब) विदूषक:–पेक्ख पेक्ख दाव महुमत्तकामिणी है। इसमे भी डा. हरीश का अर्थ 'चर्चरी गायक टोली जषास अंगोह-गहिद-सिंगकजलप्पहास्णच्चन्त-णाभरजण हमारी टोली के पास बैठकर फिरती हैं। ठीक प्रतीत नहीं जणिदकोदहलस्स समन्तदो सुच्छन्द-मद्दलोदाम-चच्चरी होता है। शायद हरीश जी ने समासन्न को समासीनं में सह-मुहर-रत्थामुह-सोहिणो पइण्णपडवास-पुंज-पिंजरिद परिवर्तित कर लिया है। दूसरे अवतरण में 'नगरकी चर्चदहमुहस्स सस्सिरीप्रदं मप्रण-महूस्सवस्स । (प्रथमाङ्क) रियां प्रवर्ती के स्थान में 'नगर में चर्चरियां प्रवृत्त हुई' कर दिया जाए तो शायद ठीक हो । कथा के अन्य दो अव(ग) (ततः प्रविशतोमदनलीला नाटयन्त्यो द्विपदी तरणों में चर्चरी के तूर्यों का निर्देश है जिससे स्पष्ट है कि खणं गायन्त्यो चेट्यौ ।)...... चर्चरी सदा मर्दलमृदङ्ग आदि के शब्द से अनुगत रहती। विदूषक-भो वपस्स! अहं वि एदाणं बज्मपरिप्रराणं जैन ग्रन्थों में चर्चरी के अनेक अन्य उल्लेख भी हैं। मझ णच्चन्तो गामन्तो मअणमहूस्सवं सम्माणइस्सं । राजा-(सस्मितम्) एवं क्रियताम् । विदूषक-जं भवं माणवेदि। (इत्युत्थाय चेट्योमध्ये नृत्यन्) भोदि ममणिए । भोदि चूदलदिए, एदं 'चच्चरि' में सिक्खावेहि। उभे-(विहस्य) हदास ण होदि एसा चन्चरी। १. देखिये 'मरुभारती', ८.१, पृ. ३-४; मरुभारती, विदूषक-ता किं मखु एवं ?
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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