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________________ पविध पतितात्मा नन्दिषेण ने ताज्जुब से कहा-'क्या वह प्रेम पवित्र नाय! भाप मेरे साथ रहकर भी परोपकार कर होता है ? तुम्हारी यह बात मेरी समझ में नहीं पाती !' सकते हैं। धार्मिक जीवन भी बिता सकते हैं। सैकड़ों __ कामकान्ता उत्तेजित होकर बोली-'हां, वह प्रेम मनुष्यों को धर्म मार्ग पर लगा सकते है। पवित्र होता है ? मैं सौ बार कहती हूँ कि वह प्रेम पवित्र 'तेरे यहाँ कौन भला आदमी धर्म सुनने को भायेगा।' होता है। ___'दुनियाँ में जो भले आदमी कहे जाते हैं उनमें से 'तब वे सैकड़ो पुरुषों के हाथ उस प्रेम को क्यों बेचती हजारों प्रादमी मेरे यहाँ धूल चाटते है। अगर मैं उनकी हैं ? क्या पवित्र प्रेम इस तरह बेचा जा सकता है ?' ओर देख दूं तो वे अपने को कृतकृत्य समझे। अगर आप ___ 'नाथ ! कोई भी वेश्या प्रेम नहीं बेचती! फिर पवित्र मेरे यहाँ पाने वालों को पतित समझते है तो मैं सिद्ध कर दूंगी कि समाज में हजारों लोग गाय का मुह लगाकर प्रेम की तो बात ही क्या है ? वह तन बेचती है, मन नहीं बेचती । प्रेम मन में रहता है तन में नही रहता।' शिकार करते हैं। समाज एक शरीर है जो ऊपर साफ सुन्दर और भीतर से महा गन्दा और दुर्गन्धित है।' ___ 'कामकान्ता ! तेरी बातें मधुर और जोरदार हैं, 'अनुभव की मूर्ति ! तेरी बातें सुनकर मैं चकित हो गया लेकिन ये मेरे हृदय पर बड़ी भारी चोट कर रही हैं । मेरा । हूँ यदि सचमुच समाज की यह दशा है तो मैं उसे हाथ हृदय फिसलता हुआ था, तूने पैर पकड़ कर नीचे की पोर जोड़ता हूँ। मैं उसका भला नहीं कर सकता।' खींच लिया । मेरा बुद्धि बल व्यर्थ जा रहा है। मैं जान कामकान्ता को हँसते देख कर नन्दिपेण ने पाश्चर्य से बूझ कर विष पी रहा हूँ।' सिर हिलाकर पूछा-'हंसती क्यों हो?' _ 'देव ! तब आप जाइये। एक वेश्या के पास विष क्या आप भले आदमियों को सुधारना चाहते हैं ? पीने के लिए न पाइये । मैं यह नहीं चाहती कि आफ्को परन्तु इसमें बहादुरी क्या है ? बहादुरी तो इस बात में पतित होना पड़े । सच्चा प्रेम, प्रेमी का पतन नही चाहता, है कि आप बिगड़ों को बनावें। सुधरे तो सुधरे हुए ही हैं, उत्थान चाहता है। जाइये नाथ ! जाइये । मेरे हृदय को उन्हें आपकी जरूरत नहीं है। आपकी जरूरत है उन शूद्रों छीनकर वन का रास्ता लीजिये। को, जो समाज में ज्ञान के अधिकारी भी नहीं माने गये नन्दिषेण चुप रहे । वे स्वयं निर्णय नहीं कर पाते थे हैं, जिन्हें समाज ने पशुओं से भी बदतर समझा है। -रहँ या जाऊँ । नन्दिषेण को चुप देखकर कामकान्ता ने प्रापकी जरूरत है उन टीन महिलानों को. जो अन्याय की कहा-प्यारे ! अगर संसार में प्रेम कोई चीज है और चक्की में पिस रही हैं, गुलामी करना ही जिनके लिए धर्म पुरुषों में हृदय नाम का कोई पदार्थ होता है तो आपको पदार्थ होता है तो आपको बतलाया जा रहा है । जो बिगड़ा है, जहाँ अनेक खराबियाँ वन में भी शान्ति न मिलेगी । मेरा प्रेम आपके हृदय को हैं-वहीं सूधारकों की जरूरत है, वहीं सुधार करना चैन नहीं लेने देगा, आप इधर से भी जायेंगे और उधर चाहिए । स्वर्ग लोक में तीर्थकर नहीं होते, नरलोक में से भी जायेंगे। आप पहिले सोच लीजिये और फिर जिसमें तीर्थकर होते है। आपका कल्याण हो वही कीजिये। मैं अपने लिये आपको कामकान्ता की बातें सुनकर नन्दिषेण पत्थर की नहीं गिरा सकती मूर्ति की तरह चुप रहे । उनके हृदय में आश्चर्य की लहरें कामकान्ता ! तेरी बातों से मैं पागल हो जाऊँगा। उठने लगीं। यह वेश्या है, परन्तु इसके भीतर कितना ज्ञान मुझे सोचने दे। परन्तु सोचू क्या ? मैं हृदय खो चुका हूँ है ! कितनी पात्रता है ! क्या यह शक्ति सुमार्ग पर नहीं और बुद्धि से भी हाथ धो चुका हुँ । मैं मानता हूँ कि यदि लगाई जा सकती? मैं एक बार उद्योग करूंगा । मैं इधर से चला जाऊँ तो मुझे वन में भी शान्ति नहीं "कामकान्ता ! मैं एक प्रतिज्ञा के साथ तेरे यहां रह मिलेगी। किन्तु मुझे चिन्ता यही है कि मैं अपने पवित्र सकता हूँ।" जीवन को इस प्रकार नष्ट कैसे करूं ?' 'वह क्या ?' मूति
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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