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________________ ११६ अनेकान्त स्थान पर आकर उन्होंने अपने चित्त को स्थिर करने की बहुत कोशिश की, बहुत धात्मचिन्तन किया किन्तु सब व्यर्थ । काम ने उनको जकड़कर पकड़ लिया था और अब वे एक तरह से पिंजड़े में पड़े हुए शेर के समान हो रहे थे। आज रात्रिभर नन्दिषेण को निद्रा न आई। वे प्राँखें मींचते थे लेकिन अँधेरा न होता या सामने कामकान्ता नजर आने लगती थी। उनके हृदय में एक प्रकार का युद्ध हो रहा था । रागवृत्ति और विरागवृत्ति एक दूसरे को पराजित करना चाहती थी। नन्दिषण ! क्यों जरासे प्रलोभन में पड़कर अपनी अमूल्य सम्पत्ति को बरबाद कर रहे हो ! अगर तुम्हें भोग ही भोगना था तो घर में ही क्या कमी थी ? यह व्रत क्यों धारण किया था । 'जो कुछ हो । अब यह व्रत नहीं पाल सकता | घर में भोगों से तृप्त हो गया था इसीलिये भोग छोड़ दिये थे अब फिर भूख लगी है तो क्या भूखों मरता रहे? 'तो क्या नन्दिषेण ! भूल के लिये विष लालोगे ! जिसको तुम उचित समझ कर छोड़ आये हो उसी का फिर सेवन करोगे ? उच्छिष्ट और अनन्तकाल से खा रहा हूँ । भूख न लगे वह अच्छा, अथवा लगे तो उसे सहन कर सकू तो अच्छा, लेकिन भूख 'के दुःख से बिलबिलाता रहूँ और उच्छिष्ट अनुच्छिष्ट का विचार करता रहूँ, इससे बढकर मूर्खता और क्या होगी ? नहीं, अब यह वेदना मुझ से न सही जायगी ।' वर्ष १५ कामकान्ता ने देखा कि एक साधु उसी के घर की मोर भा रहे हैं। प्राज तक उसने सैकड़ों युवकों को देला था और उन को अपना शिकार बनाया था। लेकिन श्राज उसे मालूम हुआ कि मैं स्वयं शिकार बन रही हूँ । आजतक उसने तन बेचा था, लेकिन ग्राज उसका मन छीना जा रहा था । नन्दिषण को देखकर उसका मन काबू में न रहा । वेश्या पुरुष की दासी नहीं है किन्तु धन की दासी है। लेकिन आज वह अपने सिद्धांत पर विजय प्राप्त न कर सकी । नन्दिषेण धीरे धीरे वहाँ पहुँचे। उसने बहुत कोशिश की कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा इसलिए लौट चलूं, परन्तु वे न लौट सके। फिर सोचा, अगर कामकान्ता मेरा तिरस्कार कर दे तो भी अच्छा है। लेकिन यह भी न हुम्रा कामकान्ता ने विनय से कहा- "महाराज क्या आज्ञा है ?" 'अरे ! तुम राजपुत्र होकर ऐसी बात करते हो ! 'राजपुत्र है या कोई है, आाखिर मनुष्य हूँ मैं जड़ नहीं हूँ। जो मनुष्य सौन्दर्य पर मुग्ध नहीं होता वह या तो ईश्वर है या जड़ | मुझ में कमजोरी है, मैं ईश्वर नहीं बन पाया हूँ इसलिये सौन्दयं का प्रभाव मेरे ऊपर न पडे यह कैसे हो सकता है ? इस तरह दोनों वृत्तियों का घोर युद्ध होता रहा। लेकिन नन्दिषेण का हृदय स्थानच्युत हो गया था, वह सम्हल न सका । दूसरे दिन नन्दिषेण भिक्षा के लिये नगर में गये और उसी वेश्या के मकान पर पहुँचे । नन्दिषेण चुप रहे उसने सोचा- अब भी भाग सकता हूँ । उनने पीछे देखा भी, परन्तु भाग न सके । कामकान्ता सब कुछ ताड़ गई। उसने पशुओं को नहीं, किन्तु मनुष्यों को चराया था वह मनोविज्ञान की पंडिता थी। आज उसे अपनी विजय पर गर्व था। विजय के सच्चे गर्व से मनुष्य नम्र हो जाता है । इस नम्रता से वह अपने गर्व का जितना परिचय दे सकता है उतना अन्य तरह नहीं इसीलिए उसने फिर धत्यन्त नम्रता ने कहा'देव दासी पर कृपा कीजिये। यह सारी सम्पत्ति आपकी है। मेरा यौवन, मेरा सौन्दर्य, मेरा शरीर और मेरे प्राण भी आपके हैं ।' । नन्दिषेण ने कहा – 'कामकान्ता ! मैं निर्धन हूँ । क्या तुझ से यह भी नहीं हो सकता है कि मेरा अपमान कर दे ? मुझे धुतकार दे ? तू वेश्या होकर भी एक निर्धन को क्यों चाहती है ? तू अपने धर्म को क्यों भूलती हैं ?" कामकान्ता ने लज्जा से सिर झुकाकर कहा - 'देव ! स्त्री, चाहे वेश्या हो या पतिव्रता, वह एक ही पुरुष को चाहती है। वेश्याओं का हृदय भी कुलवती स्त्रियों के समान कोमल होता है, उस में भी प्रेम होता है भौर भगर पृष्टता माफ़ हो तो मैं यह भी कह सकती हूँ कि वह प्रेम इतना ही पवित्र होता है जितना कि कुलवती स्त्रियों का।'
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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