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________________ पवित्र पतितात्मा लेखक-श्री सत्याभय भारती के उपवास से उनका शरीर भले ही कृश हो जाता हो नहीं पिताजी, यह कभी नहीं हो सकता । संसार परन्तु उनकी प्रात्मा पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं मुझे विष समान मालूम होता है। इस निःसार जीवन के पड़ता था। विपत्तियों को उनने चूर चूर कर दिया था। लिये मैं सच्चा जीवन नहीं खो सकता।' बे एक अजेय वीर साबित हो चुके थे। जिन लोगों ने 'बेटा, तुम्हारा कहना ठीक है। लेकिन साधु-जीवन उनको दीक्षा लेने से रोका था वे भी माश्चर्यचकित हो बड़ा कठिन है । कोई भी चीज वहीं तक अच्छी है जहाँ तक गये और अपने रोकने पर उन्हें पश्चाताप हो रहा था। हम उसे सह सकें। अगर पच न सके तो अमृत भी विष मनुष्य की प्रकृति विचित्र है। वह भौंरे के समान हो जाता है।' हैं। भोंरा काठ को काट डालता है परन्तु कमल के पत्र कुछ भी हो। मैं नही मान सकता।' को नहीं काट पाता। मनुष्य भी बड़ी बड़ी आपत्तियों को नन्दिषण ! तुम राजमहलों में रहे हो! भला, किस चूर्ण कर डालता है परन्तु प्रलोभनों की मार पड़ने पर तरह जंगल मे रहोगे? हार जाता है। नन्दिषेण ने विपत्तियों को जीत लिया था "पिता जी ! शेर के बच्चे को जंगल में रहना सिखा- किन्तु प्रलोभनों का जीतना बाकी था। सब से बड़ी ना नहीं पड़ता। वह जंगल में ही सुखी रहता है। सोने परीक्षा देने की ओर उनका ध्यान न था। का पिंजड़ा देखकर वह लुभा नहीं जाता। रूक्ष भोजन तथा अन्य तपस्यामों ने उनकी इन्द्रियों 'नन्दिषेण ! मेरा साहस नहीं होता कि तुम्हें दीक्षा को बहुत कुछ शिथिल कर दिया था फिर भी जवानी के लेने की आज्ञा दूं। परन्तु तुम्हारा हठ जबर्दस्त है। जोश को वे मार न सकी। भीतर का शत्रु दब गया पर जब तक तुम ठोकर न खायोगे तब तक तुम्हें किसी की मरा नहीं। वह चुपचाप पड़ा-पड़ा मौके की बाट देखता शिक्षा न लगेगी। खैर जागो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। रहा। नन्दिषेण महाराज श्रेणिक को प्रणाम करके चले गये ( ३ ) और भगवान महावीर के समवशरण में पहुंचे। वहां पर नगर भर में कामकान्ता का नाम प्रसिद्ध था। उस भी सबने रोका परन्तु उसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा। नगर के वेश्या जगत् की यह रानी थी, अनेक युवकों कों आखिर उनने दीक्षा ले ही ली। उसने अपनी आँखों के इशारे पर नचाया था। अनेकों को गन्ने की तरह चूस कर रास्ते का कूड़ा-कचरा बना दिया मानव हृदय एक तरह की गेंद है जो टक्कर खाकर था। उसका बड़ा ठाटबाट था। लेकिन उसकी वास्तनीतिक जलता निहिण को ज्यों- विक सम्पत्ति थी उसका यौवन और उस से भी बड़ी ज्यों रोका गया त्यों त्यो उनका हृदय और भी अधिक सम्पत्ति थी उसका सौन्दर्य और सबसे ज्यादा जहर था उछलता गया, और इसी जोश में उनने दीक्षा ले ली उसकी तिरछी चितवन में। नन्दिषण विपत्तियों से डरने वाले नहीं थे। जंगलों में एक दिन नन्दिषेण मुनि उसी नगर में भिक्षा के लिये शेर की गर्जना उनके हृदय पर कुछ भी प्रभाव नहीं गये। उनने कामकान्ता को देखा। उसी समय काम ने डालती थी। कड़ी से कड़ी धूप और कड़ी से कड़ी ठंड उनके हृदय पर चोट की। हृदय डांवाडोल हुमा । नन्दिको वे बिना किसी संक्लेश के सह जाते थे। कई दिन षेण ने उस दिन भिक्षा न ली और लौट पाये।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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