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एवं सज्जनता के बल-बूते पर ही बना है। मानव जाति का अच्छा पड़ोसीपन एवं लालसामों पर नियन्त्रण, ये सहयोगात्मक सामूहिक विकास ही जातिभेद नीति को जड़- दोनों बड़े श्रेष्ठ सद्गुण है। सत्य सदा सत्य ही रहता है मूल से नष्ट कर सकता है। अपनी व्यक्तिगत समृद्धता एवं उसे वैयक्तिक, सामूहिक, राजनैतिक अथवा सामाजिक श्रेष्ठता की अपेक्षा मानवमात्र की श्रेष्ठता एवं पवित्रता किसी भी दृष्टि से देखिए, एक ही मिलेगा। जिसे स्वयं का महत्व समझा जाना चाहिए । वैज्ञानिक प्रवृत्ति एवं प्रात्मज्ञान नहीं है और ना ही दूसरों को मनुष्य रूप से साघु प्रवृत्ति के परस्पर सहयोग होने पर ही मनुष्य सही जानने की इच्छा है वह दूसरों के साथ तो क्या स्वयं भी ढंग से मनुष्य के रूप में परखा जा सकता है। तकनीकी सुख-शांति से नहीं रह सकता है। स्व-पर विवेक ही हमारे रूप से संगठित इस विश्व में अब स्व-पर का भेद बहुत ही प्रापसी सन्देहों को मिटा कर युद्ध के लगातार भय को थोड़ा रह गया है। माज अपना कल्याण दूसरों के कल्याण सन्तुलित करता है एवं हमें शांति पूर्ण सहअस्तित्व की पर ही निर्भर है। यदि इस अहिंसा के सिद्धांत को ठीक डंग स्थिति में ले जाता है। से समझा जावे एवं प्रयोग किया जावे तो विश्व नागरिकता
आजकल विचार एवं भाषण की स्वतन्त्रता एक विलके मानवीय दृष्टि की यह एक मावश्यक माधारशिला बन
क्षण ढंग से पंगु हो रही हैं । लोगों के अपने अभिप्राय पूर्ण सकती है।
प्रचार यथार्थ सत्य को छिपा ही नहीं देते अपितु उसे ऐसा ____मनुष्य की सुगठित क्रूरता से हमें निराश नहीं होना।
तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं कि सारा संसार पथभ्रष्ट हो चाहिए । कर्म सिद्धान्त के अनुसार हम अपने भाग्य विधाता
भटक रहा है । इसका स्पष्ट अर्य है कि विवेकी पुरुष स्वयं स्वयं ही हैं । हम मारम निरीक्षण करें, अपने विचारों का
प्रबुद्ध रहे तथा अपने ज्ञान की सीमाओं को समझता हुमा विश्लेषण करें तथा अपने उद्देश्यों का वैयक्तिक व सामूहिक
व सामूहिक नय एवं स्यावाद रूप से दूसरों के दृष्टिकोणों का प्रादर रूप से मनुमान लगायें और किसी भी शक्ति के आगे
करना सीखे। हम मानव में मानवता के विश्वास को न हीनतापूर्वक झुके बिना ही इस विश्वास और पाशा के
खोयें और परस्पर प्रत्येक का मानव रूप में ही आदर साथ स्व-कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर रहें कि मनुष्य को अपने
करना सीखें तथा मनुष्य को विश्व नागरिक के रूप से अस्तित्व एवं भलाई के लिए उन्नति का प्रयत्न करना है।
स्वस्थ एवं प्रगतिशील स्थिति में रहने देने में योग दें। जैन देवत्व प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है और वह धर्म के मार्ग
धर्म के मूल सिद्धान्त (अहिंसा, व्रत, नयवाद और स्याद्वाद) का अनुसरण कर इस देवत्व को प्राप्त कर सकता है।
यदि सही ढंग से समझे जावें तथा उनका ठीक ढंग से विज्ञान एवं तकनीकी बुद्धि बल से हमें निर्णय करना है कि गाजावेतो प्रत्येक व्यक्ति विश्व का सयोग्यतम माया हम मानव समाज की भलाई को भागे बढ़ाना चाहते।
हम मानव समाजका लक्षिा मानकापाहत नागरिक बन सकता है। हैं अथवा स्वयंको रेडियम धर्मी धूलि के ढेर रूप में परिवर्तित करना चाहते हैं।
अनुवादक-कुन्दनलाल जैन एम. ए., एल. टी.
हंसान्योक्ति
मानसर धरनी मुदित मराल तहां पंकज पौन कर सुखन सुरारी है। मधुप मधुप धुनि गावत गुंजार कर मुक्ताफलती खिलावै सदा मन सांचै है। एक समय बाजी वाय छूट गयो वास थल, ऐसी विष करी हंस कूपजल जारी है। कहत 'अमर कवि' भूत भावी वर्तमान सुख दुख सह जीव कर्म बस ना है।