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________________ म. महावीर और उनका जीवन-दर्शन जाता है तो फिर ये सब गुण दूषित हो जाते हैं और मनुष्य मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अभिव्यक्ति अपूर्ण है अतः की व्यक्तिगत या सामूहिक भावनामों भयवा तौर-तरीकों विभिन्न सिद्धान्त भी अपूर्ण ही हैं, ज्यादा से ज्यादा वे सत्य के अनुसार विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं, इसीलिए की एक तरफा दृष्टि को ही पेश करते हैं जो शब्द या विचारों की निर्द्वन्द्वता एवं दृष्टिकोण का सहयोग दुर्लभ-सा विचारों द्वारा ठीक रूप से व्यक्त नहीं की जा सकती। ही होता जाता है। प्रायः हम सब अपने पापको बहुत धर्म सत्य का प्रतिनिधित्व करता है, प्रतः सहिष्णुता जैन अच्छा और ठीक समझते हैं पर किसी विषय पर मापस में धर्म एवं मादर्शों की मूल आधारशिला है। इस सम्बन्ध में सहमत होने की अपेक्षा प्रसहमत होना आसान ही नहीं तो जैन शासकों और सेनापतियों तक के प्रादर्श अनुकरणीय स्वाभाविक भी है, इसी स्थिति से निपटने के लिए जैनधर्म है। भारत के राजनैतिक इतिहास से यह स्पष्ट रूप से ने विश्व को दो बड़े महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की भेंट प्रस्तुत ज्ञात होता है कि किसी भी जैन शासक ने कभी किसी को की हैं, वे हैं नयवाद और स्याद्वाद, जो किसी विषय को मौत की सजा नहीं दी, जब कि जैन साधु एवं जैनियों को समझने और समझाने में बड़े साधक होते हैं। पदार्थ के अन्य धर्मावलम्बियों की धर्मान्धता का कोप-भाजन बनना विभिन्न दृष्टिकोणों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों का पड़ा । डा. Saletore ने ठीक ही कहा है “जैनधर्म के विश्लेषण नयवाद से होता है। एक उलझे हुए प्रश्न के महान् सिद्धान्त अहिंसा ने हिन्दू संस्कृति को सहिष्णुता के विश्लेषणात्मक परिचय का यह एक सुन्दर उपाय है। नय सम्बन्ध में बहुत कुछ दिया है तथा यह भी सुनिश्चित है एक ऐसा विशेष मार्ग है जो एक सम्पूर्ण पदार्थ के किसी कि जैनियों ने सहिष्णुता का पालन जितनी अच्छी तरह एक भाग अथवा दृष्टिकोण का विवेचन करता है, जिससे एवं सफलतापूर्वक किया उतना भारत के अन्य किसी वर्ग सम्पूर्ण पदार्थ गलत नहीं समझा जा सकता। इन विभिन्न ने नहीं किया।" दृष्टिकोणों के समन्वय की भी एक नितान्त आवश्यकता है एक समय था जब मनुष्य प्रकृति की दया पर निर्भर जिसमें प्रत्येक दृष्टिकोण अपनी उचित स्थिति प्राप्त कर था, पर प्राज प्रकृति के रहस्यों पर विजय पाकर वह उसका सके और यह कार्य "स्याद्वाद" द्वारा होता है। एक व्यक्ति स्वामी बन बैठा है। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अस्ति, नास्ति और उभय रूप से पदार्थ का वर्णन कर तेजी से विकास हो रहा है। अणु शक्ति एवं राकेटों के सकता है। इन तीनों के संयोग से सात अन्य विशेषण और प्राविष्कार ऐसे आश्चर्यकारी हैं कि यदि वैज्ञानिक चाहे तो बन जाते हैं जो स्यात् शब्द के जुड़ने से विषयको समझने सम्पूर्ण मानव जाति को कुछ ही क्षणों में ध्वंस कर सारी और समझाने का एक समुचित मार्ग बन जाता है। मस्ति की सारी पृथ्वी को ही अदल-बदल सकता है, प्रतः माज नास्ति के विवेचन में स्याद्वाद पृथक् नय के सत्तात्मक सम्पूर्ण मानव जाति विपत्ति के कंगार पर खड़ी है, जिससे दृष्टिकोण को दबा देता है। प्रो० ए० बी० ध्रुव ने कहा उसका मस्तिष्क पथ-भ्रष्ट हो चकरा रहा है तथा उसकी है "स्पाद्वाद काल्पनिक रुचिका सिद्धान्त नहीं है जो सत्त्व शरण में भाग रहा है जहाँ इस विनाश से सुरक्षा (राहत) विद्या (प्राणि विज्ञान) सम्बन्धी समस्याओं को आसानी से मिल सके अतः निश्चय ही हमें अपने प्राचीन पादों का सुलझा सके अपितु यह तो मनुष्य के मनोवैज्ञानिक एवं पुनरंकन करना होगा। आध्यात्मिक जीवन के ताल-मेल को बैठाता है"। एक दार्श- वैज्ञानिक प्रगति मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति निक जब जैनधर्म के मूलतत्त्व अहिंसा एवं बौद्धिक सहयोग प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील है, पर दुर्भाग्यवश मनुष्य के साथ अन्य धार्मिक विचारों पर अपने मत व्यक्त करता मनुष्य रूप से नहीं समझा जा रहा है, प्रायः गोरी जातियाँ है तो उसमें स्याद्वाद से विचारों की निष्पक्षता पाती है ही मनुष्यता की अधिकारिणी समझी जाती हैं यही दृष्टिऔर यह निश्चित करता है कि सत्य किसी की पैतृक कोण हमारे नैतिक स्तर का विध्वंसक है । यदि विश्व का सम्पत्ति नहीं है और ना ही किसी जाति या धर्म की कुछ भाग अधिक सुसभ्य एवं प्रगतिशील बना हुमा समझा सीमानों में सीमित है। जाता है तो वह निश्चय ही विश्व के बाकी भाग की नादानी
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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