________________
हिरल २
१. श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन साधु वर्ग अपने प्रवचनों में प्राज भी जनसाधारण की भाषा में 'ढाल' को गाते हैं।
कवि दौलतरामजी की काव्य-प्रतिभा
कविवर दौलतराम जी संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे, वे जैन सिद्धान्त ग्रन्थों के भी विशिष्ट शाता थे। उनके समय में विद्याशालाएं बहुत ही कम थीं। यह सब प्रतिभारमक ज्ञान उन्होने विशिष्ट क्षयोपशम से तो प्राप्त किया ही पर जहाँ भी वे रहे, साधम जनों को गोष्ठियां जोड़-जोड़कर और स्वाध्याय शैलियों में बैठ-बैठकर भी विस्तृत किया था। वे साधर्मीजनोंको गोष्ठीको जीवन सुधार की दिशा में बहुत बड़ी नियामत समझते थे। यह बात उन्होंने अपने एक पद में व्यक्त भी की है। वे लिखते है
सत्योपवेश-छहढाला एक समालोचन
धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी । बरसत भ्रम-ताप हरन ज्ञान-धन भरी। जाके बिन पाये भव विपति प्रति भरी । निज पर हित अहित की काढून सुधपरी कविवर कोरे तुक्कड़ कवि न होकर एक प्रतिभा शाली कवि थे, उनकी रचनाएँ जो उपलब्ध हैं; सबकी सब चुनी हुई, पद लालित्य के साथ-साथ अयं गाम्भीर्य पूर्ण है और वे जिनेन्द्र शास्त्र, गुरु, बहुर अनासक्ति की प्रधानता को लिए हुए हैं। इनके पदों में वर्णनीय विषय की प्रतिस्पष्टता के साथ अनुप्रासों की छटा और शब्दों की उचितार्थ में प्रयुक्ति पाठक के मनको लुभाने वाली है।
काव्य मधुरिमाका रसास्वाद थोड़े में कीजिए - राग रेखता
चित चितिकै विदेश कब अशेष पर ब दुखदा अपार विधि दुचार की चमू दमूं । टेक | तजि पुण्य पाप थापि श्राप आप में रखूं, कद राग-भाग शर्म या दाघिनी धर्म ॥१॥ दृग ज्ञान भान तें मिथ्या प्रज्ञान तम दमूं, कव सजीव प्राणि भूत सरसों छमूं ॥२॥ मल जल्ल लिप्त-कल सुकल सुबल्ल परिणमूं, दलके त्रिशल्ल मल्ल कब अटल्ल पद पमं ॥३॥
ἐπ
कब घ्याय अज अमर को फिर न भव-विपिन भर्मू, जिन पूर कोल दौलको यह हेतु हौं नमूं ॥४॥ पिछली दो रचनाओं का समन्वय
कवि दौलतराम जी ने 'कौ सत्य उपदेश यह ललि बुधजन की भाव पद के द्वारा अपनी रचना 'तत्त्वोपदेश' बुध की रचना का उपजीवी होना स्वीकार किया है। इन दोनों छहढालाओं का तुलनात्मक विवरण देना कि न होगा।
श्रत
यहां
विवरण इस प्रकार है
बुधजन की छहढाला
ढाल पद्य विषय
१,
१३ द्वादशानुप्रेक्षा
२, ७ संसार के चतुर्गति दुल
३, ११ भेदविज्ञान सम्यक्त्व
४, १३ सम्यक्त्व के पच्चीस दोष ५, १० श्रावकाचार
६. १० मुनिवर्या तत्त्वोपदेश छहढाला
१ प्रादिमंगल दोहा
२,
१५ द्वादशानुप्रेक्षा
१. १. संसार के चनुति दुख
३,
१७ निश्चयव्यवहार रत्नत्रय श्रौर
व्यवहार सम्यक्त्वका विस्तृत वर्णन ।
४,
६ अन्त्य के पद्यों में श्रावकाचार ६, १५ मुनिचर्या
तत्वोपदेश में विशेष बन
२, १५ मिथ्यामार्ग के प्रगृहीत गृहीत भेद
४,
८ प्राद्य छंदों में सम्यग्ज्ञान का वर्णन ३ पद्य प्राद्यन्त दोहादि रूप
छहढाला के छंद
इस प्रकार कविवर ने इस ग्रंथ में प्रत्यन्त संक्षेप में विषय को गुम्फन किया है । इसकी पद्य संख्या, कुल ६५ है । इसकी छालों में चौपाई, पद्धतिका वा पद्धतीचंद, नरेन्द्र