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________________ २३० वर्ष १५ बड़े-बड़े राजा भी उससे भयभीत थे, उसका बड़ा मातंक प्रायो एक बड़ो व्यापारी, लादै नाव सौज बहुभारी । था। पर संयोगवश वृन्दावन आने पर राधा वल्लभ सम्प्र- देहि जगात न सबसों परै, तुपक जमूरन सौं बहु लरै ॥ दाय के हित हरिवंश का दर्शन उसे हो गया और उनसे येहू मागन लगे जगात, वह मद अन्ध सुनें क्यों बात । बातचीत करने पर वह उनका अनुयायी हो गया। अपने हौ सरावगी धर्म विरोधी, हरि भक्तनिसों लर्यो किरोधी।। रास्ते की लूट-पाट करने का काम उनके उपदेश से बंद तुपक सातसै वाके संग, दुई दिसि लागे लरन अभंग । कर दिया । इसके बाद एक प्रसंग में यह बतलाया गया है तीन लाख मुद्रा को वितनि, लाये लूटि निवेद्यौ भृत्तनि ।। कि एक बड़ा सरावगी व्यापारी बहुत सा सामान लेकर वाको बांधि गांव में लाये, तुपक हथयार सबै घरवाये । उसके गांव से निकला और उसने नरवाहन से जगात कोठे मधि सौंज सब रखाई, गर तौक पग बेरी नाई ।। मांगने पर नहीं दी। यही नहीं उसके पास भी अस्त्र-शस्त्र इतनौई धन अवर मगावै, तब यह ह्यां तें छूटनि पावै । थे, इसलिए उसने लड़ाई भी की पर अन्त में नरवाहन ने वाकों बंधे बहुत दिन बीते, धन न मगाव मारौं जीते ॥ उसका सब सामान जब्त कर लिया और उसे बंधन में बैठि सभा में यह ठहराई, सो घर की चेरी मुनि पाई। डाल दिया। नरवाहन ने उससे और भी धन अपने घर से सुघर तरुण सुन्दर वह साह, देखन कौं चेरिय उमाह ।। मंगाने के लिए दबाव डाला और नहीं मंगाने पर उसे मारने दासी के जिय दया जुआई, सुनी जु त्यों ही ताहि सुनाई। का भी विचार किया । दासी ने दया करके उस सरावगी काल्हि तोहि मारेंगे राव, जीवन को नहिं कोउ उपाव ।। व्यापारी को जीने का उपाय बताया कि श्री राधावल्लभ तुहीं बचाइ ज्याइ जिय मेरौ, जन्म जन्म गुन मानौं तेरौ । हरिवंश का स्मरण करो, नरवाहन उनका भक्त है इस- एक मंत्र हों तोहि बताऊँ, तात नेरौ प्राण बचाऊँ ।। लिए वह अपना धर्म भाई समझकर तुम्हें छोड़ देगा। अपुनौ दर्व फेरि सब पहै, आदर सौं अपने घर जैहै। उसने मरने के भय से वैसा ही किया तब नरवान ने कहा माल तिलक धरि कंठी माला, मो पै मुनि लै नाउं रसाला ॥ कि मैंने तुम्हें जैनी जान कर लूटा था पर तुम मेरे गुरु का (श्री) राधावल्लभ श्री हरिवश', सुमिरत कटै पाप जम फंस । नाम ले रहे हो तो मेरे गुरु भाई हो गए, इसलिए तुम्हें जो पिछली राति पुकारि पुकारि, कहियौ ऐसी भांति सुधारि ।। कष्ट दिया है उसके लिए क्षमा करना । इतना ही नहीं नरवा- इतनी सुनत आपु चलि पावे, बेरी काटि तोहि बतराव । हन ने उसे वस्त्राभूषण दिये और उसका सब सामान वापस तब कहियो मैं उनको सेवक, भव तरिव कों बेई खेवक ।। देकर उसे गांव पहुँचा दिया। राधावल्लभ श्री हरिवंश के यह सिखाइ रावर में पाई, लागी टहल न काह जनाई । नामोच्चारण के कारण अपनी जान बची, इसलिए उनका भई प्रतीति बात मन मानी, पिछली रैनि वही धुनि ठानी। उपकार मानकर वह व्यापारी वृन्दावन जाकर उनका भक्त धुनि सुनि उठि नरवाहन पायौ, गुरु भाई लखि पद लपटायो। हो गया । व्यापारी का नाम नहीं दिया है पर उसे “सरा- महादीन ह वचन सुनाये, बार बार अपराध छिमाये ॥ वगी" और "जैनी" बतलाया गया है इसलिए वह दिग- जैनी जानि लूटि हम लीन्ही, यह गुरु भेद न किनहूँ चीन्हीं। म्बर जैनी ही होगा। दिगम्बर साहित्य में इसका कुछ भी गुरू को नाम लेत मैं जानी, दासी नै तब रीति बखानी ।। विवरण मिल सके तो खोज की जानी चाहिए। मेटौ चूक जु मोते भई, कछु इच्छा प्रभु यों ही ठई। नरवाहन परिचयी में उक्त प्रसंग के जो पद्य हैं उन्हें भोर होत स्नान कराय, उज्ज्वल पट भूषण पहिराये ॥ यहां उद्धृत किया जा रहा है सिगरी दर्व फेरि कर दियौ, रती न मन में लालच कियो। "नरवाहन भैगांऊ निवासी, वार पार में एक मवासी। श्री गुरू को विश्वास सुहायौ, सेवा करि चरणनि सिर नायी जाकी आज्ञा कोउ न टार, जो टारै तिहिं चढ़ि करि मारै॥ करि दण्डवत बिदा जब कीने, पहुँचावन सेवक बहु दीने । बस करि लियौ सकल व्रज देश, तासौं डरपैं बड़े नरेश। देखि साह के भक्ति जुमाई, सिष्य हौन कौ मति ललचाई ।। पातशाह के वचननि टार, मन आवै तो दगरौ मार ॥ जिनको छलसौं नाम उचारचौ, तान तन धन प्राण उबारचौ । अब तो उनको दरशन करौं, सर्वसु उनके मागे धरौं ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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