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________________ देवगढ़ की जैन-प्रतिमाएं लेखक-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर विश्वविद्यालय प्राचीन भारत के कलाकेन्द्रों में देवगढ़ का महत्वपूर्ण देवगढ़ के उक्त अभिलेख हवीं से लेकर १८वीं शती स्थान है । यहाँ ई० पांचवीं शती से लेकर मुगल काल तक तक के हैं । प्रमुख मंदिर संख्या १२ में सं० ६१९ का लेख वास्तु एवं मूर्तिकला का विकास होता रहा। इतने लम्बे मंदिर के एक द्वारस्तम्भ पर उत्तकीर्ण है । इस लेख की समय तक किसी एक स्थान को संस्कृति एवं कला का विशेषता यह है कि इस पर शक संवत् भी दिया है। केन्द्र बने रहने का बहुत कम सौभाग्य मिलता है। देवगढ़ कन्नौज के यशस्वी प्रतीहार शासक मिहिरभोज के समय में वैष्णव एवं जैन धर्म का साथ-साथ कई शताब्दियों तक में यह लेख लिखा गया। इस मंदिर के एक दूसरे लेख में विकास हुमा, यह भी उल्लेखनीय है। इससे यहाँ के सहि- १८ लिपियों और भाषाओं के नमूने सुरक्षित हैं। भारत ष्णुतापूर्ण वातावरण का पता चलता है। में यह लेख अपने ढंग का अनोखा है। जैन परम्परा में देवगढ उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में ललितपुर से भगवान् ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियों का लगभग १६ मील पश्चिम-दक्षिण की ओर है मध्य रेलवे आविष्कार करने वाली कहा गया है। जो लिपियां इस के जाखलौन स्टेशन से उसकी दूरी केवल आठ मोल है। शिलापट्ट पर हैं वे तत्कालीन भारत में प्रचलित विभिन्न सुरम्य पहाड़ी पर देवगढ़ के बहुसंख्यक जैन मंदिर स्थित शैलियों को परिचायक है। हैं। नीचे कलकल नादिनी बेतवा (प्राचीन वेत्रवती) बहती अन्य लेखों के द्वारा विभिन्न दाताओं, उनकी वंशाहै। दूसरी ओर नीचे प्रसिद्ध दशावतार मंदिर है, जिसका वलियों, जैनाचार्यों, श्रावक-श्राविकाओं प्रादि के नामों का निर्माण गुप्त युग में हुआ था। पता चलता है। स्थानों के भी कई नाम पाए है। साँची सौभाग्य से देवगढ़ की स्थिति घने जंगल के बीच मे एवं भरहुत के अभिलेखों की तरह देवगढ़ के इन लेखों का होने के कारण यहाँ की कलाराशि प्रायः मुरक्षित रह भी महत्व है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकाल में देवसकी। विध्य क्षेत्र के दूसरे प्रसिद्ध स्थान खजुराहो की गढ़ जैन एवं जनेतर समाज की श्रद्धा का केन्द्रविन्दु बन कलाकृतियां भी इसी कारण बच गई। बड़े नगरों से दूर गया था और सभी वर्ग के लोग यहाँ आकर इस तीर्थ की एकांत स्थानों में ही प्राचीन काल में स्तूपो, विहारों, मंदिरों अभिवृद्धि में अपना योगदान करते थे। विभिन्न वंशों के आदि के निर्माण की परिपाटी थी। शासकों का संरक्षण तो इस तीर्थ को प्राप्त था ही। देवगढ़ की पहाड़ी पर चढ़ते समय क्रमश. तीन कोट- देवगढ़ में लगभग ३१ जैन मंदिर विद्यमान है । अन्य द्वार मिलते है। सबसे ऊपर 'किले' के उत्तर-पूर्वी भाग पर कितनों के भग्नावशेष ही अब बचे है। ये अवशेष विविध जैन मन्दिर स्थित है। देवगढ तथा वहाँ निमित इन मदिरों प्रतिमाओं, इमारती पन्थरो, अभिलिखित शिलापट्टों आदि के सम्बन्ध में अनेक जनथतियाँ प्रचलित है। सौभाग्य से के रूप में है। यहाँ अब तक विभिन्न मंदिरों एवं प्रतिमानो पर ३०० से देवगढ़ की अगणित जैन प्रतिमाएं पूर्व एवं उत्तर मध्य ऊपर लेख मिल चुके हैं, जो देवगढ़ के इतिहास पर बड़ा काल की हैं । इन्हें देखने से पता चलता है कि इनके निर्माता प्रकाश डालते हैं। जिस प्रकार शुंग-सातवाहन कालीन कलाकार कितने दक्ष थे ! मंदिर संख्या १२ में स्थित बौद्ध धर्म की जानकारी के लिए भरहुत और साची की भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा विशालता एवं भव्यता का कलाकृतियाँ एवं शिलालेख उपयोगी है उसी प्रकार मध्य- समन्वित रूप है। गुर्जर प्रतिहार काल में निर्मित इस कालीन जैन धर्म एवं कला के विकास का परिचय बहुत प्रतिमा में वे सभी विशेषताएं मौजूद है जो इस काल में कुछ हमें देवगढ़ के इन अवशेषों से ज्ञात होता है। (शेष पृष्ठ ३० पर)
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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