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________________ ་་་ पृ० ७६, १६९ और पृ० ७८ तथा १७६ में प्रयुक्त हुए हैं'। उनका सारांश इस प्रकार है : (१) एक वक्त एक रात्रि में पाठशाला में रहनेवाले श्री विजयसेनसूरि को नमस्कार करके मंत्री वस्तुपाल दूसरे भाग में रहते श्री उदयप्रभसूरि को वंदन करने गये परन्तु वे वहां नहीं थे। इस प्रकार तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा करके चौथे दिन विनय पूर्वक बड़े गुरू जी से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया मंत्री। आजकल इस नगर में एक चाचरीयक महाविद्वान् प्राया है। उसके विशेष वचनों को सुनने के लिए प्रतिदिन वेश परिवर्तन करके सूरि जाते थे । यह जानकर मंत्री वस्तुपाल वहां गये और सूरि को प्रच्छन्न रूप में देखा । प्रातः मंत्री ने उस चर्चरीयक को बुलाकर २०००) रुपया देकर कहा तुम्हारे पौधशाला के द्वार के पास के चच्चर ( चौक) में चच्चर मांडो। इस प्रकार ६ महीने तक वह मांडता रहा, फिर उसका उचित सत्कार करके उसको विदाई दी। अनेकान्त (२) वीरधवल राजा के ना दउदी (नांदोद) नगर में रहने वाला मठारहीयो बहुप्रा हरदेव था । वह बहुधा जिन चाचर याचक का शिष्य था । वह एक बार प्रशापल्ली में आ गये सात दिन बाद उनके परिवार का खाना समाप्त हो गया । हमें चाचर प्रदान करो। उसने कहा पेयं धारण करो मैं सदैव मनुष्यों का मनोभिप्राय देखता रहता हूँ। इतने में ही महाराष्ट्र का गोविंद चाचरीयाक भ्रा पहुँचा । उसे अठारह पुराण ६० व्याकरण चौपाई छंद में कंठस्थ थे । उसने उसको चच्चर दी तो फिर हरदेव ने चाचरीयाक को अपने साथियों द्वारा प्रोत्साहन होने पर साथ-साथ चलते स्वाभाविक रूप से बातें करते सीताराम प्रबंध को कथा-रूप में कहना प्रारंभ किया । पहले १० हजार मनुष्य इकट्ठे हुए धीरे-धीरे और अधिक हुए। मध्य रात्रि में सुखासन में स्थित मन्त्री यादि भी सुनते थे। यहां से उठकर श्रोताओं को ज्ञात न हो ऐसा प्रयास करता हुआ वह साबरमती नदी के किनारे गया । फिर विशेष गान छेड़ा। ठंड से प्राक्रान्त मनुष्यों ने उसे कहा कि भाप सबके सुख के लिए नगर में चलिए फिर उसने पुनः उत्तर मुनिजिन विजय, पृ० १. देखिए पुरातन प्रबंध संग्रह ७६ और वस्तुपाल प्रबंध पू० १५९ १५ रामचरित का गान प्रारम्भ किया । फिर सर्व रस में निमग्न श्रोताओं को लेकर चौक में प्राया । लोगों ने अंगूठी कर्णफूल मादि के दान से ३ लाख ६० दिया " । उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि गुजरात में काव्य में कथा प्रबंध कहने वाले बार रास्ते जहाँ मिलें ऐसे पौरास्ते या चौक में बैठकर जनता के मन का अनुरंजन करते थे । उनको द्रव्य मिलता था और वे संस्कृति की उन्नति में पर्याप्त सहायता करते थे। अतः इससे चर्मरीयाक और चर्चरी शब्द के तत्कालीन रूप और महत्व पर प्रकाश पड़ता है। सं० १४८१ में जयसागर विरचित जिनकुशल सूरि चतुष्पदिका में मुनिजी की दीक्षा समय के वर्णन में चर्चरी का उल्लेख आता है नारि दिवह तब चाचरी ए गुरू गरुप्राडिंग दहादिसि संचरी ए । सरल मनोहर रूपिनरिए फिर कठिहि कोइल अवतरीए ॥ अतः इसका सम्बन्ध किसी राग विशेष से स्पष्ट होता है । उक्त वर्णनों तथा प्रसंगों द्वारा चर्चरी के विविध प्रसंगों में विविध ग्रयों की सूचना मिलती है। वास्तव में चर्चरी क्या थी यह इन्हीं उद्धहरणों के आधार पर जाना जा सकता है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि चर्चरी छोटी जाति की टोली का एक वासन्तिक गीत विशेष था, जो प्राचीनकाल से चौहट्टों आदि पर गाया जाता था । यह चर्चरी स्त्री और पुरुष दोनों गाते थे । इन तथ्यों के आधार पर चर्चरी के शिल्प सम्बन्धी निष्कर्षो या आवश्यक तथ्यों पर इस प्रकार विचार किया जा सकता है १. यह एक गीत विशेष है जो उल्लास प्रधान क्षणों की अनुभूति है । २. यह निम्न वर्ग को गायक टोलियों और उनके गीतों के लिए भी प्रयुक्त है । ३. ताली बजाकर विशेष ध्वनि उत्पन्न करने वाले वाद्य को भी चर्चरी कहते हैं। ४. चर्चरी एक प्रकार का गान विशेष है, फिल्में २. वही, पृ० ७८, वही पृ० १७६
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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