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________________ १९० अनेकान्त सुन्दर ने श्रमण होकर भी 'सोमजी निर्वाण वेलि' में संघ- हटाकर प्रात्म-ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है और पति श्रावक सोमजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। ('प्रतिमाधिकार वेलि' में जिन प्रतिमा के पूजने की देशना कनकसोम ने 'जइतपद वेलि' में खरतरगच्छ और तपा- दी गई है। गच्छ के बीच हुई ऐतिहासिक पौषध चर्चा (वि० सं० वेलि काव्य को सामान्य विशेषताएं- अन्तःसाक्ष्य के १६२५ मिगसर वदी १२, प्रागरा) का वर्णन किया है। प्राधार पर वेलि काव्य की सामान्य विशेषतामों का निर्देश (२) कथानक जैन वेलि साहित्य-इसमें जैन कथानों इस प्रकार किया जा सकता हैको काव्य का विषय बनाया गया है। कथाएं विशेषकर (१) बेलि काव्य की परम्परा काफी पुरानी और तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, सती तथा अन्य महापुरुषों से प्रसिद्ध रही है। यही कारण है कि कवि लोगों ने अपनी सम्बन्धित हैं। तीर्थकरों में ऋषभदेव (ऋषभगुण वेलि, रचनाओं के प्रारम्भ में या अन्त में संज्ञा के रूप में वेलिं या प्रादिनाथ वेलि) नेमिनाथ (नेमिपरमानन्द वेलि, नेमीश्वर 'वेल' शब्द का प्रयोग किया है। की वेलि. नेमीश्वर स्नेह वेलि. नेमिनाथ रसवेलि, नेमि- (२) वेलि काव्य का वर्ण्य-विषय प्रमुख रूप से देव राजुल बारहमासा वेलि-प्रबन्ध, नेम राजुल वेलि) पार्श्व- तुल्य श्रद्धेय पुरुषों का गुणगान करना रहा है। ये पुरुष नाथ (पाश्र्वनाथ गुण वेलि) और वर्धमान महावीर (वीर राजा महाराजा तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, सती, धर्माचार्य वर्द्धमान जिन वेलि, वीर जिनचरित्र वेलि)का पाख्यान और लौकिक देवता आदि रहे हैं । जैन वेलियों में जहां गाया गया है और चक्रवतियों में भरत (भरत की वेलि) केवल 'भव सम्बोधन काजै' उपदेश दिया गया है वहां भी बलदेवों में बलभद्र (बलभद्र वेलि) तथा सतियों में चन्दन प्रारम्भ मे तथा अन्त में तीर्थकरों, धर्माचार्यादि का प्रायः बाला (चन्द्रन-बाला वेलि) और राजमती का वृत्त अप- स्तवन कर लिया गया है। नाया गया है। अन्य महापुरुषों में जम्बूस्वामी (जम्बस्वामी (३) इस वेलि साहित्य का प्रमुख तत्व गेयता है। वेलि, प्रभवजम्बू स्वामी वेलि) बाहुबली (लघु बाहुबली जैन साधु इसकी रचना कर बहुधा गाते रहे हैं। पाठ करने वेलि) स्थूलिभद्र (स्थूलिभद्र मोहन वैलि, स्थूलीभद्रनी की परम्परा भी रही है । पृथ्वीराज ने अपनी वेलि में शीयल वेलि, स्थूलिभद्र कोश्या रस वेलि) रहनेमि (रह- १-पालोचकों ने पृथ्वीराज कृत 'किसन रुक्मणी री नेमि वेल) वल्कलचारी (वल्कलचीर ऋषिवेलि) सुदर्शन वेलि' को सबसे प्राचीन बतलाया है जो ठीक नहीं है न स्वामीनी बेलि) मल्लिदासनी वलि) प्रादि को (क) डिगल में लिखित वेलियों में सबसे प्राचीन कथा को काव्यबद्ध किया। तीर्थव्रतादि के महात्म्य को पृथ्वीराज की किसन रुक्मणी की वेलि है- नरोत्तमदास बतलाने के लिए 'सिद्धाचल-सिद्ध वेलि' तथा 'कर्मचूर- स्वामीः वेलिः प्रस्तावना- पृ० २३ व्रतकथा वेलि' की रचना की गई है। (ख) पृथ्वीराज का यह ग्रन्थ (वेलि) एक परम्परा (३) उपदेशात्मक जैन वेलि साहित्य-इसमें प्राध्या- की स्थापना करता है जिसे राजस्थान तथा व्रजमण्डल के स्मिक उपदेश दिया गया है। संसार की सुखद दशा और भक्त कवियों ने आगे तक निवाहने का प्रयत्न किया हैमसारता का वर्णन कर जीव को जन्म-मरण से मुक्त होने डा० ग्रानन्द प्रकाश दीक्षित: वेलिः भूमिका पृ०४७ के लिए प्रेरित किया गया है । यह उपदेश इंद्रिय (पंचेन्द्रिय २-१८वीं शदी के कवि जयचन्द ने एक स्थल पर वेलि) गति (चिहुगति वेलि, पंचगति वेलि, वृहद् गर्भ लिखा है कि माधु लोग पृथ्वीराज रासो, वेलि, नागदमण वेलि, जीव वेलड़ी) लेश्या (षदलेश्या वेलि) गुणस्थान पंचार मान, हरिरस मादि का वाचन क्यों नहीं करते? (गुणगणा वलि) कषाय (चार कषाय वेलि, क्रोध वेलि) पृथ्वीराज रासो, 'वेलि' वचनिका, पंचास्यान न बांचे । भावना (बारह भावना वेलि) मादि का तात्त्विक विश्ले- नागदमणि, हरिरस, अंग, सुकन सामुद्रिक सांचे ॥ षण कर दिया गया है । 'अमृत वेलिनी सज्झाय' तथा छीहल दम काक विचार अंग फरिक, जै सारक पारे । कृत 'वेलि' में सामान्य रूप से मन को विषय-वासना से विसहरा पल्लिभेद, दिपूछि त्रिपुच्छि से भेद फार्षे ॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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