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________________ राजस्थानी न बेलि साहित्य : एक परिचय १९१ पाठ विधि तक दी है' । माई-पंथ में लोक-वेलियां अब भी (६) वेलि काव्य में दो प्रकार की भाषा के दर्शन गाई जाती हैं। होते हैं । एक साहित्यिक डिंगल-अलंकारों से लदी हुई और (४) वेसि-काव्य स्तोत्रों का ही एक रूप प्रतीत होता दूसरी बोलचाल की सरल राजस्थानी, अलंकार विरल पर है, जिसमें दिव्य पुरुषों के साथ साथ लौकिक पुरुषों का वीर- मधुर और सरस । पहले प्रकार की भाषा चारणी वेलियों व्यक्तित्व भी समा गया है। वेलिकारों ने रचना के प्रारम्भ का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरे प्रकार की भाषा जैन या अन्त में वेलि माहात्म्य बतलाया है । ऐतिहासिक तथा लोकिक वलियों का। चारिणी वेलियां प्रशस्ति बनकर रह गई हैं। उनमें कही वेलि काव्य की प्रबन्धात्मकता एक सामान्य विशेषता पन्त: माध्य के रूप में 'बेलि' शब्द नहीं पाया है। है । गीत शैली होते हुए भी प्रबन्ध धारा की रक्षा हुई है। वहां 'वलियों' छन्द में रचित होने के कारण ही उन्हे 'वलि' मुक्तक के शरीर में भी प्रबन्ध की आत्मा है। नाम दे दिया गया प्रतीत होता है। (6) प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में स्वस्ति वाचन भी वेलि काव्य की एक सामान्य विशेषता है। (५) वेलि काव्य विविध छन्दों में लिखा गया है। जैन वेलियों में ढालों की प्रधानता है। मात्रिक छन्द उपर्युक्त सामान्य परिचय से यह स्पष्ट है कि जैन वेलि दोहा कुंडलियाँ, सार, सखी, सरसी, हरिपद भी अपनाये ___ काव्य-परम्परा ने हिन्दी साहित्य के विशिष्ट काव्य-रूप की गए हैं । लौकिक वेलियां लोक-धुन प्रधान है। लुप्त कड़ी को संयोजित किया है ! यह वेलि-काव्य छोटे छोटे गुटको के रूप में विभिन्न दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन घुग्घु कल्प चोर काढ़णी स्वेतोक गणेस, विधि जैकहे। मन्दिरों के शास्त्र भण्डारी में बिखरा पड़ा हैं। मुझे शोष मन्टिों साल गाइ उगाल पर मंझारिनी पूजि जै-जै चन्द भागे लहि ।। प्रबंध लिखते समय राजस्थान के विभिन्न भंडारों को देखने -मुनि कांतिसागर जी का 'यति जयचन्द और उन का सौभाग्य मि का सौभाग्य मिला। इधर महावीर भवन, जयपुर के डा. की रचनायें शीर्षक लेख । कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ने राजस्थान के छोटे-बड़े कई १. महि सुइई खटमास, प्रात जलि मजे, भण्डारों में घूमकर वहां के प्राप्य हस्तलिखित ग्रन्थों का ४ अपसपरस हरू, जित-इंद्री (२८०) भागों में सूची-ग्रन्थ तैयार किया है। इससे कई अलभ्य एवं (छ मास तक पृथ्वी पर सोवे, प्रातः काल उठकर जल अज्ञात ग्रन्थ सामने आए है । इस प्रकार के भारत-व्यापी से स्नान कर और सबका स्पर्श त्याग कर-एकाकी मौन प्रयत्न की नितान्त आवश्यकता है ! इससे अन्य काव्य-रूपों धारण कर-तथा जितेन्द्रिय होकर नित्य वेलि का पाठ करे) की विलुप्त परम्परा भी जुड़ सकेगी। पद मूरति देखि सुख पायो । मैं प्रभु तेरी मूरति देखि सुख पायो। एक हजार पाठ गुन सोहत । लक्षण सहस सुहायोटिक।। जनम जनम के अशुभ करम को। रिनु सब तुरत चुकायो । परमानन्द भयो परि पूरित । ज्ञान घटाघट छायो ।।।। अति गम्भीर गुणानुवाद तुम । मुख करि जात न. गायो ।। जाके सुनत सरदहे प्राणी। क फन्द सुरझायो ।। विकलपता सुगई अब मेरी । निज गुण रतन भजायो ।। जात हतो कोड़ी के बदले । जब लगि परख न पायो ॥३॥ (देवीवास)
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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