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एक रहस्योद्घाटन
रात्रि भोजन त्याग : WAT अणुव्रत
लेखक-पं० रतनलालजी कटारिया
उमास्वामी कृत "त-वार्थमूत्र" अध्याय ७ सूत्र १ को छठे अणुव्रत का यह सब कथन सामान्य (Common) निम्नांकित टीकाओं में रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे है अतः मुनि और श्रावक दोनों की अपेक्षा से कहा गया अणुव्रत के विषय में इस प्रकार लिखा है :
है। इसके सिवा पालो। तपानभोजन को लेकर जो (१) पूज्यपाद कृत-'सर्वार्थ सिद्धि' :--
विवेचन है वह तो खास तौर से मुनियों की अपेक्षा से ही ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजन चरमणं
है ऐसी हालत में यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि-'रात्रि तदिहोपसंख्यातव्यम् न, भावनास्वन्तर्भावात् । अहिसावत
भोजन त्याग को फिर 'अणुव्रत, संज्ञा क्यों दी गई है ? भावना हि वक्ष्यन्ते तत्र शालोकितपानभोजन भावनाबार्येति ।
उसे 'वन, सामान्य से ही अभिहित करना चाहिये था 'मणु,
कहने से वह सिर्फ श्रावकों के लिए ही जाना जाता है।" (२) अकलंक देव कृत 'राजवातिक'
इस प्रश्न का समाधान तत्वार्थ की किसी भी टीका में स्यान्मनमिह रात्रिभोजन विरत्युपसख्यानं कर्तव्यं तदपि पष्ठ कही भी नहीं पाया जाता है। मणव्रतमिति तन्न, कि कारणं, भावनान्तर्भावात् ।
__इमी तरह-- (३) भास्करनंदि कृत 'सुखबोधवृत्ति'---
(५) मुनियों के 'देवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण, और रात्रिभोजनवर्जनाख्यं तु पष्ठमणुव्रतमालोकितपान भोजन 'पाक्षिक प्रतिक्रमण, में पंच महाव्रतों के बाद ही रात्रि भावनारूपमओवक्ष्यते ।
भोजन विरमण नामक छठा अणुव्रत बताया है देखों :श्रुतसागर कृत 'तत्वार्थवृत्ति'
"प्रणब्बदं राइ भोयणादो वे रमण" (पप्ठमणुव्रतं ननुरात्रिभोजन विरमण पप्ठ मणुव्रतं वर्तते । रात्रि भोजनाद्विरमणं) (सर्वार्थ सिद्धिवत्)
- -"क्रिया कलाप, पृष्ठ ५२, ८७, ८०, १०२-१०३ इन मब टीकाग्रन्थों में बताया है कि
(६) आशाधर कृत 'नित्य महोद्योत, (श्लोक १६) "रात्रि भोजन त्याग नामक छठा अणुव्रत है उसको की थतसागर कृत टीका में लिखा हैयहां परिगणना होनी चाहिए। नही, क्योंकि आगे अहिमा
"पंचमहाव्रतानि रात्रि भोजन वर्जनाभिधानाणुव्रत व्रत को पालोकित पान-भाजन भावना म उसका अन्तभाव पप्ठानि प्रतिपादितानि भवन्तीति अर्थान-५ महाव्रत और हो जाता है।
रात्रिभोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत मुनियों के होता भास्कर नंदि ने-'रात्रि भोजन-त्याग, को 'अलोकित
है । देखो-'अभिपेक पाठ मंग्रह, पृ० १२६ । पान भोजन, का पर्याय वाची ही बताया है। ऐसा ही
(७) वीरनंदि कृत 'प्राचारमार, (मुनियों का आचार्य विद्यानंद ने-'श्लोक वार्तिक, में बताया है देखो
प्राचार ग्रन्थ) पृष्ठ ३५ में पंच महाव्रतों के बाद लिखा पालोकितपानभोगनाख्या भावना रात्रिभोजन विरतिरेवेति नासावुपसंख्येया।
व्रत त्राणाय कर्तव्यं गत्रिभोजन वर्जनम् । अर्थात्-पालोकित पान भोजन नाम की भावना सर्वथान्नान्निवृत्तिस्तत्प्रोक्तं पष्ठ मणुव्रतम् ॥७॥ रात्रि भोजन त्याग ही है अतः उसकी अलग गणना करने
अधिकार ५ को जरुरत नहीं होती।
अर्थ :-(मुनियों को) व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि
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