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________________ अनेकान्त वर्ष १५ में जैन कथानों का विशिष्ट स्थान है। मधु बिन्दु वाली -एक ऐसी पत्रिका की आवश्यकता है जो प्रकाजैन कथा विश्व की चालीस से अधिक भाषाओं में रूपा- शित एवं अप्रकाशित समस्त जैन साहित्य का परिचय न्तरित हो चुकी है । विन्टरनिट्ज ने अपनी पुस्तक 'Some देती रहे। पत्रिका वार्षिक हो या अर्धवार्षिक । विश्व में Problems of Indian Literature' तथा टोनी ने 'जन आज तक जितना जैन साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसका कथा रत्नकोष' की भूमिका में इस ओर संकेत किया है। प्रामाणिक परिचय उसमें रहे। उसके "अप्रकाशित जैन उन कथानों का तुलनात्मक अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृ- साहित्य" १९६० से पहले का प्रकाशित जैन साहित्य तिक संबंधों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। एवं "नवीन जैन साहित्य" आदि स्तम्भ हो सकते ४-जैन साहित्यके अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। हैं। इसी प्रकार विभिन्न-भाषाओं एवं विषयों के लिए जो मुद्रित हुए थे उनमें से भी बहुत से अब नहीं मिलते। अलग-अलग उपस्तम्भ हो सकते हैं। पत्रिका अंग्रेजी में इस दिशा में कुछ संस्थाएं कार्य कर रही है, फिर भी काम रहे तो उसका प्रचार और भी व्यापक रूप से होगा। बहुत बड़ा है। प्राकृत साहित्य का कार्य प्राकृत टेक्स्ट ६-जैन परम्परा के विषय में अनुशीलन सम्बन्धी सोसायटी ने उठाया है अब संस्कृत ग्रन्थो के विवेचनात्मक जहाँ-जहाँ कार्य हो रहा है, उस सबके संयोजन की भी संस्करणों की आवश्यकता है। यदि उनका अंग्रेजी अनुवाद परम आवश्यकता है, जिससे यह पता लग सके कि कहाँ क्या निकल सके तो और भी अच्छा होगा। विदेशों में इसकी कार्य हो रहा है और पुनरावृत्ति न होने पाये । इसी प्रकार बड़ी मांग है। नवीन कार्य के लिए मार्ग दर्शन भी प्राप्त हो सके। कुछ अप्रकाशित जैन कथा ग्रंथ लेखक-श्री कुन्दनलाल जैन, एम० ए० एल० टी०, साहित्यशास्त्री प्राचीन विश्व साहित्य में जैन साहित्य का अपना एक भयंकर परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे है। जिससे महत्वपूर्ण स्थान है परन्तु आज के इस वैज्ञानिक विकास प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों के मुद्रण एवं प्रसारण की ओर शील युग में जैन साहित्य का प्रचार एवं प्रसार सबसे प्रत्यनशील हो रहे हैं। पुराने ग्रंथ भंडारों की वैज्ञानिक अधिक कम है। यह हमारे पिछड़ेपन की जबर्दस्त निशानी ढंग से सूचियां तैयार हो रही हैं और उनमें उपलब्ध महत्वहै। आज प्रसारएवं प्रचार और मुद्रणके इतने अधिक आधु- पूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन होने लगा है। लेखक भी दिल्ली के निकतम साधन सुलभ हैं फिर भी हमारा साहित्य प्राचीन भंडारो में उपलब्ध लगभग पांच हजार पांडुलिपियों की ग्रंथागारों में पड़ा सड़ रहा है, अनेकों बहुमूल्य ग्रंथ दीमक विधिवत् सूची तैयार करने में लगा हुआ है । वर्तमानमें नया देवी निगल गई है। पठन-पाटन तो दूर उनके दर्शन भी मंदिर-धर्मपुरा के सरस्वती भंडार के ग्रन्थों की सूची तैयार किसी समय दुर्लभ थे, यही कारण है कि जैन साहित्य की की जा रही है। यह भंडार ला० हरसुखराय जी ने ही महत्ता एवं प्रचुरता से लोग सर्वथा अनभिज्ञ रहे और समृद्ध किया था। यहाँ पर सभी विपयों के बहुमूल्य ग्रंथ इसीलिए लोगों ने जैनधर्म और साहित्य के विषयों में उपलब्ध हैं। बहुत से अजैन ग्रंथ भी हैं। सबसे बड़ा अनेकों भ्रांतिपूर्ण बातें लिखी हैं। इस सब का उत्तरदायित्व प्राश्चर्य तो यह कि उस समय में ऐसे ग्रंथ आसानी से हमारे अन्धविश्वास और प्रदूर दर्शिता पर है। उपलब्ध नहीं हो पाते थे, इनके तैयार कराने में अथवा अब लोग कुछ सचेत हो रहे हैं, उन्हें अपनी भूल के एकत्रित करने में कितना द्रव्य तथा समय व्यय हा होगा
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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