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________________ अनेकान्त वर्ष १५ को स्पष्ट करने के लिए काफी उपयोगी हैं । (पुष्ठ ६, के 'अन्य' भाग में जैनत्व की विशद समीक्षा है-विशेषतः १४ भादि।) 'प्रमाण प्रमेय कलिका' के प्रसंग में । संस्कृत न जानने वाले विषय प्रवेश करने वालों के लिए श्री हीरावल्लभ पाठकों के लिए मूल-ग्रंथ गत विषय का बोष प्रस्तावना के शास्त्री का प्राक्कथन कुछ उपयोगी है और पाठ सम्पादन इस भाग में हो जाता है। किन्तु मूल-पाठ न समझ पाने को समझने के लिए सम्पादकीय द्रष्टव्य है किन्तु इस वाले जिज्ञासुओं के लिए हिन्दी-अनुवाद उपयोगी होता ! संस्करण का विशेष उल्लेखनीय अंश इसकी प्रस्तावना है जो 'ग्रन्थ' और 'ग्रन्थकार' दो भागों में लिखित है। 'ग्रन्थ संस्कृत-ग्रन्थों के सम्पादन की कठिनाइयों और उत्प्रेकार' काफी संक्षिप्त है किन्तु इसमें नरेन्द्रसेन के विषय में क्षामों को ध्यान में रखते हुइ, 'प्रमाण प्रमेय कलिका' का ज्ञात और ज्ञातव्य सामग्री का प्रमाण सङ्कलन है । प्रस्तावना यह संस्करण अपने में प्रायः पूर्ण है। अवधेशकुमार शुक्ल प्रात्म-विश्वास मात्म-विश्वास एक विशिष्ट गुण है। जिनका पात्मा में विश्वास नहीं वे मनुष्य धर्म के उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। मुझसे क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं असमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ, ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म-विश्वास के अभाव में कदापि सफल नहीं हो सकते । सती सीता में यही वह प्रशस्त गुण (मात्म-विश्वास) था जिसके प्रभाव से रावण जैसे पराक्रमी का सर्वस्व स्वाहा हो गया। सती द्रोपदी में वह चिनगारी थी, जिसने एक क्षण में ज्वलन्त-ज्वाला बनकर चीर खीचने वाले दुःशासन के दुरभिमान-द्रुपद (अहंकाररूपी विष वृक्ष) को दग्ध करके ही छोड़ा। सती मैना सुन्दरी में यही तेज था जिससे वजमयी फाटक फटाक से खुल गये। सती कमलश्री और मीराबाई के पास यही विषहारी अमोघ मन्त्र था, जिससे विष शरवत हो गया और फुकारता हुआ भयंकर सर्प सुगन्धित सुमनहार बन गया । अस्सी वर्ष की बुढ़िया प्रात्मबल से धीरे-धीरे पैदल चलकर दुर्गम तीर्थराज के दर्शन कर जो पुण्य संचित करती है वह अविश्वासी-जनो को, जो डोली पर चढ़कर यात्रा करने वालों को कदापि सम्भव नहीं है। बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार्य जिनपर संसार पाश्चर्य करता है आत्म-विश्वास के बिना सम्पन्न नही हो सकते। -वर्णी वाणी womewomeramananewwwwwwwmarwanamamawwamanawwwwwwwwwARALIAMALINImaawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww www अागामी साहित्य विविध जैन प्रकाशन संस्थानों से निवेदन है कि वे अपने 'पागामी प्रकाशनों का पूर्ण परिचय 'अनेकान्त' में भेजने की कृपा करें। इससे यह लाभ होगा कि एक ही ग्रंय के प्रकाशन में दो संस्थाओं की शक्ति और धन एक साथ व्यय नहीं होंगे। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक दूसरे की गतिविधियों को न जानने के कारण दो संस्थाएं एक ही ग्रंथ के प्रकाशन में जुट पड़ती हैं । यदि वे पृथक्-पृथक् ग्रंथों को प्रकाशित करें तो विपुल अप्रकाशित जैन साहित्य प्रकाश में आ सकेगा। व्यवस्थापक अनेकान्त wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwaam wwwwwwwwwwwwwwwwesouanwwwwwwwwwwwwwwaaNANIMNAAMIncomwww
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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