SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १ बौलतरामकृत जीवघर चरित्र : एक परिचय चौपाई घर में विवाह योग्य कन्या माता-पिता के लिये तहां राजपुर नगर अनूप, राज कर सत्यंधर भूप॥ कितनी चिन्ता की वस्तु होती है तथा विवाह के पश्चात् पटरानी विजया गुण खानि, जा समान रति रूप न मानि ॥ उनका कितना भार कम हो जाता है मंत्री काष्ठांगारिक एक प्रोहित रुद्रदत्त अविवेक । दोहा-"रहै कंवारी कन्यका ब्याह जोगि घर माहि । कवि की भाषा साहित्यिक कलाबाजियों से कोसों माता तात को दूसरी ता सम चिंता नाहि ॥ दूर है । काव्य की रचना कवित्व शक्ति दिखाने को नहीं पुत्रि परणावन समा, नहि निचितता और । अपितु सत्यं शिवं सुन्दरम् को ध्यान में रखते हुए स्वपर तातै भयो निचित अति गरुड वेग खग मौर ॥" कल्याणार्थ-धार्मिक पुरुषों के चरित्र को कथा के बहाने माता और पुत्र का दंडक वन में मिलन होता है उस से कहने के लिए की गई है। सारे काव्य में ढूंढारी (जय- समय माता की दुर्दशा तथा स्नेह का चित्रण देखियेपुरी) भाषा के साथ २ प्रज भाषा का मिश्रणहै किन्तु कहीं "तहाँ लखी विजया गुण खानी, अति विलाप जुत सोक भी कवि ने शब्दों में क्लिष्टता नहीं आने दी है। निधानी। कवि ने बाल लीला का अच्छा वर्णन किया है । बालक सुत सनेहत आंचल जाके, भरि आये 4 करि अति ताके ॥ जीवंधर अपने अन्य साथियों के साथ लाख की गोली से अश्रुपात परिपूरण नैना, अति दुरबल तन सखलित बैना । खेलते दिखाई देते हैं। जहु चिंता जुत है संतप्ता, जटी भूत सिर केस विक्षिप्ता ।। "एक दिवस या पुर के पासा, कंवर करत है केलि किलासा नित्य निरंतर उश्न निराासा, तिन करि विवरण अधर उदासा । लाख तनी गोली करि वाला, खेलत है रस रूप रसाला।" अति मलीन जाके सब दंता, सर्वाभरण रहित दुखवंता ॥ ___ जीवंधर कुमार प्रारम्भ से कुशाग्र बुद्धि एवं तत्काल चितवंति निज चित्त मझारा, सुत वियोग को दुख प्रति भारा। उत्तर देने वाले थे। उन्हें गोली खेलते देख एक साधु ने तब ही प्राय परयो सुन पावां, हाथ जोरि सिर नमि सुभभावा। पूछा कि लाला नगर कितनी दूर है ? इस पर उनका दई असीस ताहि तब माता, होहु पुत्र तुम्हरे मुख साता ॥" उत्तर देखिये-- कवि ने ग्रन्थ में धार्मिक सिद्धान्तो तथा चारित्र संबंधी "बोले कंवर सबै इह जान, बालक चेलक पंथ पिछाणे। बातों का भी अच्छा विवेचन किया हैतू प्रति वृद्ध ज्ञान न तोकी, किती दूर पुर पूछत मोको ॥ "अनन्तानुबंधी महा क्रोध मान मद लोभ । तरवर सरवर बाग विसाला, बहुरि देखिये खेलत बाला । बहुरि तीन मिथ्यात ए सात प्रकृति मति क्षोभ ।। तहां क्यों न लखिये पुर नीरा, संसै कहा राखिये वीरा ॥ इन को उपशम क्षय बहुरि अर खय उपसम होइ। ज्यों लखि धूम अनि ह्व जान,तौ बालक लखि पुर परवान।।" तब प्रकट सम्यक् त्रिविधि मूल व्रत को सोय ।। बालक जीवधर की बातों पर प्रसन्न हो तापसी उनके सात उपसमा उपसमी क्षयतै क्षायक जान । साथ भोजन करने घर आता है। माता बालक को गर्म- एक उदै ह्व सातमी सो वेदक परवानि ॥ गर्म भोजन परोसती है। बालक माता से रूठ जाता है हिंसा मिथ्या वचन पर चोरी नारी संग । तथा रोने लगता है और कहता है-गर्म भोजन कसे किया परिग्रह त्रिस्ना पंच ए पाप कुमति के अंग ।। जावे । माता को परेशान होती देख तापसी बालक को न सकल पाप को सर्वथा त्याग महाव्रत जानि । रोने तथा धैर्य रखने के लिये समझाता है। इस पर किंचित त्याग अणुव्रता इह निश्च परवानि ।।" बालक जीवंधर का उत्तर देखिये इस तरह उक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि दौलतराम "सुनि तापस के वचन विवेकी, बोले पाप भाव कर एकी। जी ने जीवंधर चरित्र के रूप में एक श्रेष्ठ काव्य की रचना की है जिसे भाव-भाषा एवं शैली आदि सभी दृष्टियों रोवे के गुन तुम नहि जानो, मेरी बात हिये परवानो।।। से उत्तम कृति कहा जा सकता है। इस रचना की उपजाय सलेषम जो दुखदायी, नेत्र विमल है अति अधिकाई। लब्धि से हिन्दी भाषा की प्राचीन रचनामों में एक और तितै प्रहार हु सीतल होई, यामै तो भौगुन नहि कोई ॥' रचना की वृद्धि हुई है।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy