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________________ फिरल ४ उपजीव्य रहा है, तथापि सूत्रों में जैनेन्द्र व्याकरण का प्रभाव भी यत्र-तत्र परिलक्षित होता ही है । शाकटायन व्याकरण किस व्याकरण से प्रभावित है, इसका विचार स्वतन्त्र लेख में किया जायेगा । शाकटायन व्याकरण को उपजीव्य बनाकर प्रवृत्त हेमचन्द्र ने महाभाष्य और शाकटायन के विस्तृत विषयों का थोड़े ही शब्दों में इस कौशल के साथ अपने सूत्रों एवं वृत्तियों में समाविष्ट किया है कि उनको समझने के लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है। किं बहुना, गहन विषयों के तत्त्वों को थोड़े शब्दों में ही निबद्ध करते हुए तथा सूत्रों एवं वृत्तियों की रचना अतिविस्तृतपन के दोष का परिहार करते हुए इस नूतन रचना से आचार्य ने महती प्रतिष्ठा प्राप्त की है शाकटा यन व्याकरण के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के २० सूत्र अविकल इस शब्दानुशासन में संग्रहीत हैं। जिनकी तालिका इस प्रकार है में । सिद्धमचानुशासन हैं और दूसरे सिद्धहेम के सूत्रां है— o (१) प्रयोग १।११५ ११३७ इस तालिका में प्रथम ध शाकटायन के सूत्रांक (शा० सू० प्रमोधवृत्ति २०१०५ ) (२) आसन्न १।१७, ७४१२० (३) सम्बन्धिनां सम्बन्ध ११७१२१ (४) बहुगणं भेदे १|१|१०, ११४० (२) क समाध्यर्थः १०१११, २०१०४१ (६) कियार्थी धातुः १।१।२२, ३३३३ (७) गत्यर्थ वदोच्छ: १११।३०, ३१८ (८) तिरोऽन्तम १११०३१, २०१ (९) स्वाम्येऽथि: ११३४ २०१११३ (१०) प्राध्वं बन्धे १११३८, ३|१|१६ (११) पर ११११४४ ७७४११० (१२) स्पर्धे २१४६७४११ (१३) नं क्ये (१४) मनुनंभोऽङ्गिरोति १४१०६७, (१५) स्वंरस्वक्षौहिण्याम् १११४८५ (१६) वोष्ठौती समासे १।१।६३, ११११८८ (१७) इ (१८) सम्राट् १।१।२२ १।१।२४ १।२।१५ १२।१७ १।१४६७, ११२।३० १।१।११३, १।३।१६ २।३।१० (१९) सुचो वा १।१।१७०, (२०) समासे ऽसमस्तस्य १|१|१७३, २।३।१३ यदि कुछ मात्रा और अक्षरों के हेर-फेर से सूत्रों की तुलना की जाय तो शाकटायन व्याकरण के प्रथमाध्यायगत द्वितीय पाद के अनेक सूत्र इसमें संगृहीत मिलेंगे। यदि शाकटायन व्याकरण के ४ अध्यायों एवं १६ पादों को देखा जाय, तो एक स्वतन्त्र तुलनात्मक ग्रन्थ तैयार हो जायेगा । अतः कुछ ही उदाहरण यहां दिये गये हैं । सूत्र की समता के साथ-साथ वृत्ति की समता भी निश्चित रूप से देखी जाती है। यह सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन की तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति और शाकटायन की अमोघवृत्ति की परस्पर तुलना से स्पष्ट है । ' १५३ १- दह शास्त्र उपदिश्यमानो वर्ण: स्वीत्समुदायो वा लौकिकशब्दप्रयोगे न स इत्संज्ञो भवति । अतएव चास्य प्रयोगाभावः सिद्धः । उपदेशस्तु कार्यार्थः । एधि - एधते । " "दह शास्त्रे उपदिश्यमानो वर्णस्तत्समुदायो वा मो लौकिके शब्द प्रयोगे न दृश्यते स एति अपगच्छतीति इत्संज्ञो भवति । श्रप्रयोगित्वानुवादेनेत्संज्ञा विधानाच्चास्य प्रयोगाभावः । उपदेशस्तु धातु-नाम-प्रत्यय-विकारागमेषु कार्यार्थः । पाती एच एचते।" (है० सूत्र तत्व० वृत्ति१।११३७ ) २ - बहुगण इत्येतौ शब्दो भेदे वर्तमानो संख्यावद् भवतः । भेदो नानात्वम् एकत्वप्रतियोगि बहुकः बहुधा, बहुकृत्वः । भेदे किम् ? वैपुल्ये संधे च सङख्या कार्य मा भूत् । बहुगणनाऽत्यन्ताय संचक्षते इति वचनम् । अतएव भूर्यादीति निवृत्ति ।” (शा० सू० श्रमो० १।१।१० ) - , " बहुगण इत्येती शब्दो भेदे वर्तमानो संख्यावद् भवतः । भेदो नानात्वमेकत्वप्रतियोगि बहुक, बहुषा, बहुकृत्वः भेद इति किम् ? वैपुल्य संघे च संख्याकायं मा भूत् । बहुगणी न नियतावधिभेदाभिधायकाधिति संख्याप्रसिद्धे रभावाद् वचनम् । अतएव भूर्यादिनिवृत्तिः ।" तत्व० वृत्ति १|१|४० ) इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों के श्रविकल वचनों को लेकर भी, परिष्कार करके इस प्रकार लिखा है
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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