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काष्ठासंध स्थित माधुरसंघ गुतविली
लेखक-पं० परमानन्द शास्त्री
भारतीय इतिहास में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रंथ प्रशस्तियों, कलात्मक प्रस्तर फलकों, और मूर्तिलेखों आदि का जितना महत्व है, उतना ही महत्व प्राचीन प्रबन्धों, पट्टायलियों और सुर्यावलियों आदि का भी है। इनमें उल्लिखित इतिवृत्तों में ऐसी उपयोगी सामग्री उपलब्ध हो जाती है, जो ऐतिहासिक तथ्यों के निर्णय में बहुत कुछ साहाय्य प्रदान करती है। जैन ग्रंथभण्डारो में अनेक गुर्दा बलियाँ और पट्टावलियाँ पाई जाती हैं। जिनमें जैना, और भट्टारकों की नामावली तथा उनमें कुछ भट्टा रकों श्रादि के कार्यों का उल्लेख भी रहता है, जो तीर्थ यात्रा, धर्मप्रचार, पट्टाभिषेक, वन और वाद-विजय से सम्बन्ध रहता है। यहाँ काष्टासघ की एक शाखा माथुर संघकी एक गुर्वावली दी जा रही है, जो उक्त परम्परा के बाचायों और भट्टारकों आदि का नाम प्रस्तृत करती है, यह गुर्वावली अभी तक अप्रकाशित है और दिल्ली के धर्मपुरा के नये मन्दिर के शास्त्र भण्डार से उपलब्ध हुई है, इस गुर्वावली में ६८३ वर्ष की श्रुत परम्परा के धर्मारघुवश कुमार संभव आदि सैकड़ो काव्यों की जितनी प्राचीन प्रतियाँ सुरक्षित हैं इतनी प्राचीन प्रतियां ग्रन्यत्र मिलना सुलभ नहीं है । जैसलमेर के अतिरिक्त नागौर, अजमेर, कोटा, जयपुर, बीकानेर, भरतपुर, रिषभदेव, सागवाड़ा के जैन भण्डारों में महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की सैंकड़ों प्रतियाँ सुरक्षित है। इन ग्रंथ संग्रहालयों को देखने हुए कभी-कभी यह विचार होता है कि प्राचीन काल में साहित्य संग्रह के महत्व को अधिक समझा जाता था। यदि उन्हें श्राज जैसी सुविधाये मिली होतीं तो संभवत. गाँव गांव में पुस्तकालय भाज से मैकड़ों वर्ष पहले ही जुल गए होते।
इस प्रकार राजस्थान ग्रंथ एवं ग्रंथकारों दोनों के लिए ही पावन भूमि रहा है, जिसके लिए प्रत्येक भारतीय गौरवान्वित है ।
चार्यों के नामोल्लेख के अनन्तर अनेक आचार्यों या भट्टारकों के नामादि प्रस्तुत किए गए हैं पर उनके समयादि की उसमें कोई सूचना नहीं मिलती और न अन्य कोई प्रामाणिक साधन ही उपलब्ध हैं जिनसे उनके समयादि के सम्बन्ध में निर्णय किया जा सके उस कठिनाई का एक कारण आचार्यों के नामों की क्रमबद्धता का न होना भी है।
कालदोपसे जैन संघ अनेक गण-गच्छ श्रादिक में विभक्त हो गया है । जैसे देवसंघ, गौडसंघ, नंदिसंघ, मूलसंघ यापनीयसंघ, पुष्करगण, बलात्कारगण, देसीगण सरस्वती गच्छ, माथुरगच्छ, पुस्तक गच्छ और नन्दितटगच्छ श्रादि ।
जयपुर भंडारके एक गुच्छक में काष्ठासंघकी पट्टावली के निम्न पद्यों में उसकी चार शाखाओं का उल्लेख है, नन्दितर, माथुर बाग और लाल (ट) बागढ़। इससे माथुरसंघ भी उसकी एक शाखा ज्ञात होती है ।
काष्टासंघो भुवि ख्यातो जानन्ते नृसुरासुराः । तत्र गच्छाच चत्वारो राजन्ते विधुता सिती ॥ १e नंदीतटसंज्ञश्च माथुरो बागाऽभिध ।
लाल (2) बागड इत्येते विख्याता क्षितिमंडले ||२०|| काष्ठासंघ की उत्पत्ति का समय आ० देवसेन ने अपने दर्शनसार ग्रन्थ में ६५३ बतलाया है, जो रामसेन के द्वारा निष्पिछसंघ मथुरा में उत्पन्न हुआ था । यदि दर्शनसार के कर्ता द्वारा लिखित उक्त समय प्रामाणिक हो तो काष्ठामंपकी उत्पत्तिका समय वि.की १०वीं शताब्दीका मध्यभाग हो सकता है। यद्यपि इस संघ में अनेक विद्वान् आचार्य मुनि हुए है, किन्तु जो साधु ग्रन्य शाखा प्रशाखाओं में विभक्त है उनका यहां कोई उल्लेख नहीं है । जैसे काष्ठासङ्घ माथुरसङ्घ के श्रमितगति आदि विद्वान |
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प्रस्तुत गुर्वावली में विद्वानों का नामोल्लेख क्रम इस प्रकार है - जयसेन, वीरसेन, ब्रह्मसेन, रुद्रसेन, भद्रसेन कीर्तिषेण जयकीति, विश्वकीर्ति अभयसेन भावकीर्ति विश्वचन्द्र, अभयचन्द्र, माघचन्द्र, नेमिचन्द्र, ( उदयचन्द्र )