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रहि लागे वरने दोन, कोल्हापाक पतासां मीठा। भक्ति एवं मध्यात्म-पदों के अतिरिक्त नेमिराजुल सम्बन्धी दूध पाक पणा साकरीमा, सारा सकरपारा कर करीमा। भी पद हैं, जिन में नेमिनाथ के प्रति राजुल की सच्ची मोटा मोती प्रामोद कलाचे, बलीमा कसमतोमा भावे। पुकार मिलती है । नेमिनाथ के बिना राजुल को न प्यास प्रति सुरवर सेवईमा सुंदर, पारोगे भोग पुरंदर। लगती है और न भूख सताती है। नींद नहीं पाती है और प्रोसे पापड मोटा तलोमा, पुरी माला प्रति मजलीमा। बार-बार उठकर गृह का प्रांगन देखती रहती है। यहाँ
नेमिनाथ के विरह में राजुल किस प्रकार तड़फती थी पाठकों के पठनार्थ दो पद दिये जा रहे हैं। तथा उसके प्रथम बारह महीने किस प्रकार व्यतीत हुए, इसका नेमिनाथ बारह मासा में सजीव वर्णन हुआ है। इसी
राग धनश्री तरह का वर्णन कवि ने प्रणय-गीत एवं हिंडोलना-गीत में भी किया है।
मैं तो नरभव वादि गमायो। फागुण केसू फूलीयो, नर नारी रमे वर फाग जो।
न कियो तप जप व्रत विधि सुन्दर । हस विनोद करे घणा, किम नाहे धर्यो बैराग जी।
काम भलो न कमायो । मैं तो०॥॥ नेमिनाथ बारह मासा
विकट लोभ तें कपट कूट करो।
निपट विषय लपटायो॥ सीयालो सगलो गयो परिण नावियो यदुराय ।
विटल कुटिल शठ संगति बैठो। तेह बिना मुमने झूरतां एह दोहा रे वरसा सो थापके॥
साधु निकट विघटायो । मैं० ॥२॥ प्रणय-गीत
कृपण मयो कछु दान न दोनों। वणजागगीत में कवि ने संसार का सुन्दर चित्र उतारा
दिन दिन दान निलायो। है। यह मनुष्य वणजारे के रूप में यों ही संसार में भट
जब जोवन जंजाल पड्यो तत्र । कता रहता है। वह दिनरात पाप कमाता है और संसार
परत्रिया तनु चितलायो । मैं ॥३॥ बन्धन से कभी भी नहीं छूटता।
अन्त सगय कोउ संग न पावत पाप कर्या ते अनंत, जीववया पाली नहीं।
झूठहि पाप लगायो। सांचो न बोलियो बोल, मरम मो साबह बोलिया। कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही। शील गीत में कवि ने चरित्र प्रधान जीवन पर प्रत्य
प्रभु पद जस नहीं गायो मैं० ॥४॥ धिक जोर दिया है। मानव को किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए चारित्र बल की आवश्यकता है । साधु-संतों
पद राग-सारंग एवं संयमी जनों को स्त्रियों से अलग ही रहना चाहिए मादि का अच्छा वर्णन मिलता है इसी प्रकार कवि की सभी
सखी री प्रब तो रह्यो नहि जात । रचनायें सुन्दर हैं।
प्राणनाथ की प्रीत न विसरत छण छरण छीजत गात । पदों के रूप में कुमुदचन्द्र ने जो साहित्य सृजन किया
सखी० ॥१॥ है वह और भी उच्च कोटि का है। भाषा, शैली एवं भाव नहि न भूख नहीं सिसु लागत, घरहि घरहि मुरझात । सभी दृष्टियों से ये पद सुन्दर हैं । 'मैं तो नर भव वादि
हामि मन तो उरझी रह्यो मोहन सुं सेवन ही सुरभात ॥ गमायो' पद में कवि ने उन प्राणियों की सच्ची प्रात्म-पुकार
सखी० ॥२॥ प्रस्तुत की है, जो जीवन में कोई भी शुभकार्य नहीं करते नाहिने नींद परती निसि बासर, होत बिसुरत प्रात । हैं। अंत में हाथ मलते ही चले जाते हैं । जो तुम दीन चन्दन चन्द्र सजल मिलिनीदल, मन्द मायतन सुहात । दयाल कहावत' पद भी भक्ति रस की सुन्दर रचना है।
सखी० ॥३॥