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________________ १७८ अनेकान्त तथा दूसरे हाथ में चमर अंकित किया गया है जो इस मंदिर की विशेषता है। देवियों के बड़े होने की मुद्रा विशेष कला-पूर्ण है और शरीर के त्रिभंग को इस संयम के साथ उभारती है कि उसकी प्रतिकृति करने में खजुराहो का कलाकार भी असफल रहा प्रतीत होता है । इन दोनों प्रतिमाओं के मुकुट, कुण्डल, रत्नहार, किंकणी, कंगन तथा वस्त्र बड़े सुन्दर बन पड़े हैं, प्रत्येक अङ्गोपाङ्ग, अलंकार, एवं मुद्रा बड़े सुन्दर संयोजन के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। द्वार के दाहिनी घोर, मकर वाहिनी गंगा के पार्श्व में एक चतुर्भुज यक्ष- मूर्ति भामण्डल सहित अंकित है । इस प्रतिमा का एक हाथ खण्डित है शेष तीन हाथों में क्रमश: गदा, नाग, और श्वान अंकित किए गए है। बायीं ओर कूर्म वाहिनी यमुना के पार्श्व में भी इसी प्रकार चतुर्भुज यक्ष-मूर्ति भामण्डल सहित दिखाई गई है । इसका भी एक हाथ खंडित है जिसमें किसी चतुष्पद प्राणी की रस्सी रही है, जिसके पैर और पूंछ का आकार अभी भी दिखाई देता है । शेष तीनों हाथों में गदा, कमल और नाग दिखलाये गए हैं। गंगा यमुना के शिरोभाग से द्वार की बराबरी तक सीधे पाषाण पर साधारण बेलि का अंकन है, और द्वार के ऊपर के तोरण पर तीन दिगम्बर जैन तीर्थकरों का स्पष्ट अंकन किया गया है, जो इस मन्दिर को जैन मन्दिर सिद्ध करता है । वर्ष १५ यह मंदिर 'जैन शासन देवियों के स्वतंत्र मंदिरों की श्रृंखला में' सेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की यक्षी 'पद्मावती' का मन्दिर होना चाहिए। इस स्थान का अपभ्रंश नाम 'पतियान दाई भी इस स्थान को 'पद्मावती मंदिर मानने की मेरी धारणा की पुष्टि करता है। द्वार के तोरण पर उत्कीणित पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाओं का अस्तित्व भी इस विश्वास का एक कारण है। जहां तक तोरण पर मध्य में स्थित आदिनाथ की मूर्ति का प्रश्न है, परम मंगल-कर्त्ता प्रादीश्वर के रूप में ऐसे स्थानों पर उनका अंकन साधारणतः पाया जाता है, परन्तु दोनों ओर पार्श्वनाथ का चित्रण साभिप्राय ही हुआ है। द्वार पर के इस तोरण में दोनों छोरों पर तथा मध्य में, दो-दो स्तम्भों की सहायता से तीन प्रतीव सुन्दर कोष्ठकों का निर्माण हुआ है। इनमें से मध्य के कोष्ठक में वृषभ चिह्नांकित युगादि देव भगवान भादिनाथ की सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्णित है तथा दोनों धोर के कोष्ठकों में भगवान पार्श्वनाथ की फणावति सहित प्रतिमाएँ बनी हैं। ये तीनों मूर्तियां ५ इन्च ऊंची पचासन विराजमान हैं सौम्यता, । मनोजता और शारीरिक अनुपात की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ सुन्दर हैं । इस मंदिर के भीतर एक सुन्दर और सुसज्जित देवी प्रतिमा विराजमान थी जो सभी लगभग बीस वर्ष पूर्व यहां से हटाई गई है, अस्तु इस आधार पर मेरा अनुमान है कि गुप्तकाल में सतना के आस पास भुमरा के एक मुख शिव, नचना के चतुर्मुख शिव और पार्वती मंदिर तथा सौरा पहाड़ के जिनबिम्बों के निर्माण के काल में धर्मायतनों के माध्यम से कला के प्रदर्शन की सत्यं शिवम् के साथ सुन्दरम् के सविशेष प्रदर्शन की होड़ सी लग गई थी। नचना का अति सुन्दर पार्वती मंदिर एवं उसके भग्नावशेष भी इसके प्रमाण हैं । यदि उसी समय जैन- वास्तु निर्माताओं में भी इस भावना ने जोर मारा हो तो इसे स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए। जैन मूर्ति विधान में उपास्य देव की गृहस्थ अवस्था का अंकन या उनके माता-पिता की मूर्तियों का निर्माण कभी प्रचलित नही रहा, केवल भित्ति चित्रों में दक्षिण के तिरुपत्तिकुनरम जिन कांची-प्रादि कुछ स्थानों में ऐसे चित्रण मध्य युग के प्राप्त हुए हैं ऐसी अवस्था में सम्भवतः कला की अभिव्यक्ति की लौकिक एषणा पूरी करने के अभिप्राय से ही जैनवास्तु-निर्माताओं ने जैन शासन देवियों के स्वतन्त्र मंदिरों के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया होगा । सतना से लगभग सत्तर मील दूर कटनी के पास बिलहरी नामक स्थान में भादिनाथ की शासन देवी च स्वरी' का एक स्वतन्त्र मन्दिर स्थित है जिसका उल्लेख प्रसिद्ध पर्यटक मुनि कांतिसागर जी ने अपनी पुस्तक खण्डहरों का वैभव' में किया है। विलहरी का प्राचीन नाम 'पुष्पावती' भी कहा जाता है और वहाँ का उपरोक्त मंदिर पूर्व मध्यकाल की कलचुरी कला की देन है। सम्भवतः सतना का यह पद्मावती मंदिर उक्त चक्रे
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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