SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ४ पतियान बाई १७६ श्वरी मंदिर से पूर्व का बना है। मेरी इस घोषणा के दो की सीमा का उद्घोषक होने के कारण गंगा-यमुना का कारण हैं। एक तो यह कि यहां पास-पास गुप्तकालीन अनिवार्य-प्रडून करके ही मानों कलाकार ने छेनी को कृत अवशेष अधिक पाये जाते हैं और मध्यकाल में यहाँ बहुत कृत्य मान लिया है। तोरण के नीचे स्तम्भों पर मिथुनकम निर्माण हुआ है, दूसरे उस पद्मावती मंदिर की निर्माण युगल, या भक्ति के व्याज से अप्सरानों का सौन्दर्याकन पद्धति भी उस धारणा को पुष्ट करती है। उसे तब अभीष्ट नहीं था। गर्भालय भी जितना भीतर गुप्तकाल के उपरान्त कलाकार की दृष्टि कला की अलंकार विहीन है। बाहर भी उतना ही सादा होकर मात्मा से उठकर उत्तरोत्तर कला के शरीर की ओर वीतरागता का उद्घोष कर रहा है। आकृष्ट होती चली गई है। जैन, शैव, वैष्णव और शाक्त इस प्रकार प्राप्त प्राधारों पर और साधारण सभी प्रकार के मंदिरों के निर्माण में इस भावना का असर से मेंरी धारणा है कि यह स्थान पद्मावती-मन्दिर ही है स्पष्ट दिखाई देता है। मध्य युग में दसवीं ग्यारहवीं और इसका निर्माण उत्तर गुप्तकाल अथवा पूर्व मध्यकाल शताब्दी में--खजुराहो तक पाते तो ऐसा लगता है कि में हुआ होगा। वहां भ्रमण करते हुए एक दिन कोटर की सांसारिकता और स्थूल मांसलता ही जैसे कला का ध्येय एक झाड़ी में मेरे साथी श्री पन्नालाल को एक पाम्ररह गया हो। कलाकार के मानसिक धरातल की अभि- मन्जरी का अवशेष प्राप्त हुआ है जिसका पालेखन बाईसवें व्यक्ति के उस जन-मानस-समर्थित आधार की पृष्ठ भूमि तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी देवी अम्बिका के परिकर में में यदि पद्मावती-मन्दिर का निरीक्षण किया जाय तो उसके निर्माण काल का अनुमान करना आसान हो जायगा। किया जाता है, अतः मुझे आशा है कि इस स्थान पर शोध ऐसा लगता है जैसे सौन्दर्य के पुजारी कलाकार की किये जाने पर संभवतः कुष्ठ और भी सामग्री मिल सकेगी छेनी पर यहाँ संयम का पहरा था । तत्कालीन साम्राज्य और कालान्तर में इस स्थान की महत्ता सिद्ध हो सकेगी। जैन मित्र की भूल मैं प्रेमचन्द जैन, जनसमाज को सूचित करता हूँ कि जैन मित्र के दिनांक २७-६-६२ के अङ्क में 'वीरसेवामन्दिर देहनी सम्बन्धी सूचना' के अन्तर्गत मेरे नाम से जो कुछ छापा गया है, वह भ्रमात्मक है। जैनमित्र के सम्पादक ने मेरे पत्र के आशय को बिना समझे, उसे काट-छाँटकर छाप दिया है । मैंने यह नहीं लिखा कि 'ट्रस्ट की ओर से हमने किसी को चन्दा मांगने के लिए नहीं भेजा है।' यह वाक्य सम्पादक ने अपनी भोर से ही जोड़ा है। जैन मित्र के दिनांक .-१०-६२ के अङ्क में 'खेद-प्रकाशन' शीर्षक के अन्तर्गत जो यह लिखा गया है कि"पं० बलभद्र जी वीरसेवा मन्दिर में महीनो मे काम कर रहे हैं", बिल्कुल गलत है। वीर सेवामन्दिर ने पं० बलभद्र जी को कभी नियुक्त नहीं किया, न वह वीरसेवामन्दिर में काम कर रहे हैं और न वीरसेवामन्दिर ने उन्हें चन्दा के लिए कही भेजा था। जैन मित्र ने इसी अङ्क में आगे चलकर लिखा है, "लेकिन प्रेमचन्द जी वीरसेवामग्दिर के सदस्य नहीं हैं।" इस विषय में इतना बताना पर्याप्त है कि मैं वीरसेवामन्दिर का आजीवन सदस्य हूँ और उसका मन्त्री हूँ। मैंने जो सूचना जैनमित्र मे भेजी थी, वह वीरसेवामन्दिर की मोर से भेजी थी, ट्रस्ट की ओर से नहीं। अच्छा हो यदि जैनमित्र के सम्पादक सूचनाओं का ठीक सारांश दिया करें। उन्हें शायद यह विदित नहीं है कि वीर-सेबा-मन्दिर एक पब्लिक संस्था है और वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट एक व्यक्तिगत ट्रस्ट है। मन्त्री वीरसेवामन्दिर, दिल्ली
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy