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________________ साहित्य-समीक्षा २८९ किया था। गणपर और प्राचार्यों ने उसका पालन किया। सिद्धांत भवन मारा की है और तीसरी पन्नालाल सरस्वती इस ग्रंथ के रचयिता श्री सिंहसूरषि ने भी इसमें परिवर्तन भवन, बम्बई की है । जहाँ तक सम्पादन का सम्बन्ध है, वह नहीं किया, केवल भाषा बदली है । अर्थात् प्राकृत के स्थान तो एक मंजा हुमा हाथ है। यह सत्य है कि ग्रंथ जीवराज पर संस्कृत की है। उनके समय तक एतद्विषयक जितने ग्रंथमाला की गौरवशालिनी परम्परा के अनुरूप ही है। ग्रंथ उपलब्ध थे, वे सभी प्राकृत भाषा में थे। किंतु प्राकृत सम्पादन में और भी चमक मा जाती यदि दो-चार प्रतियां का प्रचलन समाप्त हो चुका था। अतः ग्रन्थ का संस्कृत भौर उपलब्ध हो जाती। भाषा में निबद्ध होना अनिवार्य था। समय की गति को हिंदी अनुवाद का अपना स्थान है । ऐसे ग्रंथ बिना देखते हुए श्री सिंहसूरर्षि ने ऐसा किया। प्रचलित भाषा में अनूदित हुए समझ में नहीं पाते 'ऐसे' का ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से यह विदित नहीं होता कि तात्पर्य है, एक तो संस्कृत भाषा और दूसरे गणितानुयोग । सिंहसूरर्षि कौन थे, उनका समय क्या था? नाम से इतना अब संस्कृत का प्रचलन नहीं है। जो पढ़ते भी हैं, उन्हें उसकी भर अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कोई साधु थे-मुनि पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती। ऐसी दशा में उस ग्रन्थ की हो सकते हैं, भट्टारक भी। सम्पादक ने उन्हें भट्टारक माना ख्याति राष्ट्र भाषा के अनुवाद के बिना सम्भव नहीं है। है, किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है। यह ग्रंथ गणित से ग्रंथ के साथ के साथ संलग्न प्रस्तावना एक छोटा-सा सम्बन्धित है गणित के जानकार भट्टारक होते थे और निबन्ध है । इसमें गन्थ के मूल विषय पर सभी दृष्टियों से अन्य साधु भी। इस आधार पर उन्हें केवल भट्टारक विचार किया गया है। उसका तुलनात्मक अंश प्रत्यधिक सिद्ध नहीं किया जा सकता । कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है महत्वपूर्ण है । लोकविभाग की तिलोयण्णत्ती, हरिवंश पुराण कि वे संस्कृत के उद्भट विद्वान और गणित के प्रकाण्ड आदिपुराण व त्रिलोकसार से तुलना की गई है । तुलना के पण्डित थे । यह ग्रन्थ उनके ज्ञान का प्रतीक है। उनके अतिरिक्त हस्तलिखित प्रतियां, ग्रंथ परिचय, विषय का समय की भी रेखा नहीं खीची जा सकती। अनेक अनुमान सारांश, ग्रंथकार, ग्रंथ का वैशिष्टय, ग्रंथ का वृत्त और ना फिर उनको स्वयं गलत बता देना, किसी प्राचार्य भाषा, ग्रंथ रचना का काल आदि उपशीर्षकों पर भी के काल क्रम के निर्धारण का श्रेष्ठ ढंग नहीं है। विचार किया गया है, ग्रंथ अनुसंधान की दृष्टि उपयोगी है। श्री सिंहसूरर्षि ने जिस प्राकृत ग्रन्थ को आधार बनाया वीरवाणी (कवि बनारसीदास विशेषांक) वी वह श्री सर्वनन्दिकृत 'लोयविभाग' था। उन्होंने इस ग्रंथ का निर्माण कांची नरेश श्री सिंहवर्मा के राज्य काल शक ___ संपावक-मंडल-पं० चैनसुवदास न्यायतीर्थ, पं. संवत् ३८० में किया था। यह ग्रंथ निश्चित रूप से सिंह भंचरलाल न्यायतीर्थ, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रकासूरपि के सामने था । इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं है। उनके शक-वीरवाणी, मणिहारों का रास्ता, जयपुर, पृष्ठसंख्या प्रस्तुत ग्रंथ की प्रशस्ति से ऐसा स्पष्ट ही है। सर्वनन्दि के १०८, मूल्य-दो रुपये। ग्रंथ का नाम क्या था, यह शंका भी शंका के लिए ही है। बनारसीदास-समारोह समिति के संयोजक डा. कस्तूर जब ग्रंथकार ने केवल भाषा परिवर्तन की प्रतिज्ञा की है, चन्द कासलीवाल ने इस वर्ष, ४ फरवरी १९६३ को, तो यह कैसे हो सकता है कि उसने अपने ग्रन्थ का नाम ___ जयपुर में, बनारसीदास के ३७७ वें जन्म-दिवस पर जयन्तीदूसरा रख दिया हो। अनुवाद कर्ता नाम परिवर्तन नहीं समारोह मनाया। इसी अवसर पर उन्होंने बनारसीदासकरते । अतः निश्चित है कि प्राकृत के 'लोयविभाग' का ही विशेषांक निकालने का भी प्रायोजन किया । यह सब कुछ संस्कृत में 'लोक विभाग' हुआ। वे एक माह से कम समय में ही कर सके । यह उनकी इस ग्रंथ का सम्पादन तीन हस्तलिखित प्रतियों के लगनशीलता और अध्यवसाय का परिचायक है। प्राधार पर किया गया है। पहली प्रति भण्डारकर प्रोरि- विशेषांक में ३८ निबन्ध हैं । उनसे बनारसीदाम के यण्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट, पूना की है, दूसरी प्रति जैन जीवन, उनके कृतित्त्व और काल विशेष की पूर्ण जानकारी
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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