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________________ १८ अनेकान्त के रचने की वह अपनी स्वीकारता प्रदान कर देता है। रइधूणामें गुणगणधारउ, सम्महजिण चरिउ-१० सर्ग एवं २४६ कड़वक सो णो लघइ वयण तुम्हारउ ।। अथवा लगभग १२०० पद्यों वाले “सम्मइजिण चरिउ" (सम्मइ० ११५७-६) के लेखन की कथा भी कम रोचक नहीं। प्रस्तुत रचना में इसके बाद भ० यशःकीतिने ब्र० खेल्हा की ओर से प्र० खेल्हा अपने धर्मगुरु यशकीति भट्टारक से संसार की जो वकालत की वह भारतीय साहित्य में अद्भुत है। प्रसारता का वर्णन करते हुए तथा अपने को इस प्रसारता से वस्तुतः यह सभी खेल्हा की ही परोक्ष करामात थी। संतप्त बताते हए चित्रपट पर पाते हैं (सम्मई० ११४ाह-११) देखिए यशःकीति किस प्रकार रइध को तैयार करते हैं:वे चन्द्रप्रभा एवं महावीर स्वामी के परमभक्त थे। उनके भो सुणि कइयण कुल तिलय सारू । मन में इच्छा होती है कि यदि कोई कवि (जैन भाषा में) णिवाहियणिच्च कइत्त भारु । 'सन्मति चरित" की रचना कर दे तो उसका स्वाध्याय कर जिण सासण कुल वित्थरण दच्छ । उनके मन को बड़ी शान्ति प्राप्त हो। लेकिन वह कहें मिच्छत्त परम्मुह भाव सच्छ । किससे? महाकवि रइबू का नाम खेल्हा ने सुना अवश्य महु तण वपण ग्राथण्णिवण । पा लेकिन सम्भवत: उन्हें ऐसा आत्मविश्वास न था कि अवगहिं बहुविह मण वियप्प ।। उनके निवेदन पर महाकवि सम्मइजिण चरित' की रचना के लिए तैयार हो जायेंगे, यद्यपि खेल्हा के मन में इच्छा (सम्मइ० १।६।१-३) यही थी कि रइधू ही उक्त रचना करें। खेल्हा यह भट्टारक यश:कीर्ति ने कवि को अपनी ओर से कुछभी बोल वात भी अच्छी तरह जानते थे कि रइधू भट्टारक यशकीर्ति कति सकने का अवसर न देकर तुरन्त ही 'अवगहिं बहुविह मण का अनुरोध नहीं टाल सकते । अतः ऐसे अवसर पर भ० वियप्प' कहकर हिसार के नहाउदार चरित थी तोस उ यशकीति को ही मध्यस्थ बनाना उचित समझ बडी कुश- साहू की दानवीरता एवं साहित्य रमिकता का परिचय देते लता पूर्वक उन्होंने भ. यशकीति के समक्ष निम्न भूमिका हुए कहा :बांधी। तुहुँ पुण तहो भण्वहुँ वियलिय गब्बहु णामु चडावहिं सिरि चरमिल्ल जिणिदहु केरउ । कव्वुणिरु ।। (वही १।।१४) चरिउ करावमि सुक्ख जणेरउ ।। इसके बाद भी कवि को अपनी ओर से कुछ भी बोलने जइ कुवि कइयणु पुण्णे पावमि । का कोई अवसर नहीं । यश.कीति ही कवि की प्रतिभा, सहता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि ।। दयता एवं प्रखंड विद्वत्ता को प्रशंसा करते हैं, जिससे कवि (मम्मइ० ११५१५-६) की भावुकता उभड़े बिना नही रहती। फिर भी कवि "ता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि' कहकर खेल्हा ने सात्विक एवं निश्छल मन से यशःकीति के चरणकमल गुरुदेव के गम्भीर नेत्रों की ओर आधेक क्षण तक झांका पकड़कर अपनी असमर्थता व्यक्त करते है :और फिर उनसे कुछ प्राशाजनक संकेत भांपकर लगे हाथ गुरुपय कमल हत्थ धारेप्पिणु । उन्होंने अपने गुरुदेव को कवि की अन्तरंग एवं बहिरंग ___ कइणा बोलिउता पणवेप्पिणु ।। सभी परिस्थितियाँ खूब अच्छी तरह से समझाते हुए उन्हें हउं तुच्छमई कव्वु किह कीरमि। अपने मन की बात सुनाई : विणु वलेण किम रणमहि धीरमि ।। तइया इममाइ (इमाइ ?) तासु पउत्तउ, णो आयण्णिय वायरण तक्क । तेणजि अणुमण्णियउ णिरुत्तउ ।। सिद्धत चरिय पाहुड प्रवक्क ।। तं जि सहलु करि भो मुणि पावण, . मुद्धायम परम पुराण गंथ । एत्थु महाकइ णिवसइ सुहमण ।। माणस संसय तम तिमिर मंथ ।।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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