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________________ भ. महावीर और उनका जीवन दर्शन डा०ए० एन० उपाध्ये भारत के कुछ विशिष्ट पुरुषों में अध्यात्म एवं ज्ञान शक्ति के केन्द्र थे और मानव समाज उनकी असीम कृपा की पिपासा अनादि काल से ही प्रचलित रही है। उस पर निर्भर था। पुरोहित लोग देवतामों को बलि चढ़ा-चढ़ा समय भी जब कि जनसाधारण अज्ञानता, गरीबी एवं अपने कर ही मानवों की सुरक्षा का ढोंग रचा करते थे। यह पूर्वजों की अन्धश्रद्धा तथा पूजा में ही लगा रहता था। एक वैदिक विचारधारा थी जो भारत में उत्तर-पश्चिम से धार्मिक नेताओं का महत्व अपने भक्तों के विश्वास विजय भाई और अपने अद्भुत प्रभाव से यत्र-तत्र अनेकों अनुयायी में ही निहित था। भारत में धार्मिक नेता दो प्रकार के बनाती हुई भारत के पूर्व और दक्षिण में फैल गई। रहे है-एक पण्डों व पुरोहितों के रूप में उपदेशक तथा इसके विपरीत भारत के पूर्व में गंगा-यमुना के कछारों दूसरे परोपकारी एवं आत्म-शोधी के रूप में मुनि लोग। में कुछ मात्म-शोधी साधु हुए जो उच्च राजघरानों से सम्बउपदेशक शास्त्रोक्त पद्धति के महारथी होते थे वे कहा करते न्धित थे तथा उच्च चिन्तन एवं धार्मिक क्रांति के इच्छुक थे कि विश्व एवं देवतामों तक का अस्तित्व और उद्धार थे। उनकी दृष्टि में प्राणीमात्र धार्मिक चिन्तन का केन्द्र उनके द्वारा प्रवर्तित बलिदान के मार्ग से ही सम्भव ही है. साथ ही अचेतन जगत से उसके सम्बन्ध टूटने का एक इनके सम्प्रदाय बहुदेववादी थे। देवता लोग प्रायः प्राकृतिक । _ साधन भी है। इससे वे साधु लोग जीवन की इहलौकिक गई है। इनमें चित्रित विभिन्न घटनाओं से एक अजैन भी और पारलौकिक समस्याओं पर सोचने के लिए बाध्य हुए; ऐसा प्रभावित होता है कि वह कदाचित् ही उन्हें भूलता क्योंकि उनके समक्ष पात्मा (चेतन) और कर्म (जड़ पदार्थ) या फिर उन्हें पहचानने में असफल होता है । वे एक प्रकार दोनों ही यथार्थ थे। इहलौकिक अथवा पारलौकिक जीवन से जैन पुराण शास्त्र और मूर्तिविद्या की चित्रित पुस्तकें प्रात्मा और कर्म के पारस्परिक अनादि-निधन सम्बन्धों का हैं जो अपने वर्णन को सरल एवं रोचक ढंग से प्रस्तुत करती परिणाम ही तो है और यही सांसारिक दुखों का कारण हैं। इस रीति में निहित विचार मितव्ययता है जैसा कि भी है, पर धर्म का मूल उद्देश्य कर्म को आत्मा से पृथक मुझे त्रिचनापल्ली के एक चित्रकार ने बताया जो उस समय करना है, जिससे मात्मा पूर्ण मुक्त हो शुद्ध ज्ञानात्मक नत्रभूतेश्वर मन्दिर में कार्य कर रहा था । यह कार्य शिला- चिदानन्द चैतन्य का मानन्द अनुभव कर सके। मनुष्य लेख के कार्य से कम व्यय का है जो कि बहुत अधिक अपना स्वामी स्वयं ही है। उसके मन, वचन और काय कष्टसाध्य भी है मुझे यह भी बताया गया कि रंग फीके उसे अपने ही रूप में परिणमन करते हैं तथा कराते रहते पड़ें तो चित्रों को नया किया जा सकता है। उनको नया न हैं। इस प्रकार मनुष्य अपने भूत भविष्य का निर्माता व करने का यह फल हुमा है कि तिरुपरुट्टिकूनरम् के अनेक विघटनकर्ता स्वयं ही है । धार्मिक पथ पर अग्रसर होने के चित्र फीके पड़कर लुप्त हो गए हैं जिससे हमें उनको, पूर्ण- लिए वह अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों को अपना आदर्श मानता रूप से नष्ट हो जाने से पहले ही, पजीबद्ध करने का है और जब तक आध्यात्मिक उन्नति की चरम-सीमा एवं प्रोत्साहन मिला है।' परिपूर्णता (कृतकृत्यता) नहीं प्राप्त कर लेता तब तक अनुवादक-डा० ए० के० दीक्षित, बड़ौत मुनि-मार्ग का अवलम्बन कर कर्म-संघर्ष में रत बना रहता १. 'तिरुपट्टिकुनरम् और उसके मन्दिर' लेखक : ९ टी० एन० रामचन्द्रन् प्रकाशक : मद्रास म्यूजियम, १९३४, इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि प्राच्य प्लेट ६-३०। धार्मिक विचारधारा में ईश्वर कर्तृत्व एवं उसके प्रचारक
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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