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________________ अनेकान्त वर्ष १५ अनुश्रुति के अनुसार मथुरा नगर को धर्मतीर्थ बनाने का मथुरा का वह प्राचीन स्तूप स्वर्णमयी ही था। उनका सौभाग्य सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के समय में ही हो समवसरण भी इस नगर में पाया था और उसकी स्मृति गया था। उस समय यह नगरी बारह योजन दीर्घ एवं में जिस स्थल पर समवसरण रचा गया था वहां कल्पद्रुम नौ योजन विस्तीर्ण थी, वह यमुना के जल से प्रक्षालित की स्थापना करके भ० पाश्र्वनाथ के उपलक्ष से भी मथुरा उत्तुंग प्राचीर से अलंकृत थी और असंख्य जिनमन्दिरों, में धर्मतीर्य स्थापित किया गया था। इसी काल में मथुरा देवालयों, धवलभवनों, वापी, कूप, पुष्करिणियों एवं हाट- का एक राजा बड़ा लोभी था। उसने विवेक को तिलांबाजारों से सुशोभित थी। वहीं अनेक चातुविद्य ब्राह्मण जलि देकर स्तूप के स्वर्ण और रत्नों का अपहरण करना नित्य शास्त्र पाठ करते थे। एक बार धर्मघोष एवं धर्म- चाहा। इस पर देवी के कोप से उसी स्थान पर उक्त रुचि नाम के दो तपस्वी मुनि इस नगर के उपवन में प्राकर राजा की अपमृत्यु हो गई। देवी ने यह देखकर कि स्तूप ठहरे। उक्त मुनिद्वय की प्रेरणा से उक्त उपवन की इस रूप में सुरक्षित रहना कठिन है, उसे ईटों से पाच्छाअधिष्ठात्री कुबेरा नामकी देवी ने रातोंरात एक विशाल दित कर दिया। इस प्रकार ईटों से बने उस प्राचीन जैन एवं अतिमनोहर रत्ननटित स्वर्ण स्तूप का निर्माण किया। स्तूप के, जिसे 'वोद्व स्तूप' भी कहते हैं, अवरोप ही गत यह स्तूप तीन मेखलाओं (वेदिकाओं) से युक्त था, शिखर शताब्दी के उत्तरार्ध में मथुरा के कंकाली टोले की खुदाई पर तीन छत्र धारण किए हुए था और अनेक जिनबिंबों में पुरातत्त्वज्ञों को प्राप्त हुए थे, जिनका प्राय. एक मत तथा ध्वजा, तोरण, माला आदि मंगल द्रव्यों से अलंकृत अनुमान है कि वह स्तूप ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने में पांच था। उसमे मूलनायक के रूप में भ० सुपार्श्वनाथ की या छ सौ वर्ष पूर्व अवश्य बना होगा। मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई थी। उनका समवसरण अन्तिम तीर्थङ्कर भ. बर्द्धमान महावीर (५६६भी इस स्थान पर पाया बताया जाता है। सम्भवतया ५२७ ई०पू०) के शुभागमन से भी मथुरा नगर धन्य इन्हीं कारणों से उक्त स्तूप का वर्णन 'मथुरायां महालक्ष्मी हुआ बताया जाता है। एक अनुश्रुति के अनुसार मथुरा निमितः श्रीसुपार्श्वस्तूपः' के रूप में किया गया है। इसके का तत्कालीन राजा भीदाम नाम का था, किन्तु हरिषेण उपरान्त, चौदहवे तीर्थ ङ्कर भ० अनन्तनाथ का स्मारक- के 'वृहत्कथाकोष' तथा नागदेव रचित 'सम्यक्त्वकौमुदी' तीर्थ निकटवाहिनी यमुना नदी के हृद में रहा बताया नामक ग्रन्थों के अनुसार जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित जाता है । बाईसवें तीर्थङ्कर भ० अरिष्टनेमि के समय में सौरदेश की राजधानी इस मथुरा नगरी में पद्मोदय का पुत्र मथुरानगरी यदुवंशी क्षत्रियों के अन्धकवृष्णि संघ की एक राजा उदितोदय राज्य करता था। सुबुद्धि उसका मन्त्री प्रमुख राजधानी थी। उसी बीच कुछ समय के लिए इस था और यमदण्ड कोटपाल (शहर कोतवाल) था। इसी पर कृष्ण और बलराम के मातुल अत्याचारी कंस का नगर में रूपखुर नामक तस्कर का पुत्र स्वर्णखुर भारी दस्यु शासन रहा, जिसका अन्त उक्त दोनों शलाका पुरुषों था जो अजनगुटिका के प्रयोग द्वारा अपना चोरी का व्यव. (नारायण कृष्ण और बलभद्र-बलराम)ने किया तथा राज्य साय करता था। नगर का राज्यश्रेष्टि जिनदत्त का पुत्र के न्याय्य अधिकारी उग्रसेनको, जो कंस के पिता थे और पुत्र अहंद्दास था जो अत्यन्त धनाढय था और अपनी पाठ द्वारा पदच्युत हुए थे, पुनः राजपद पर प्रतिष्ठित किया। पत्नियों सहित जिनधर्म का परम श्रद्धालु भक्त था। उस इस काल की घटनाओं का विशद वर्णन हरिवशपुराण, काल में मथुरा में प्रतिवर्ष शारदीय पूर्णिमा के दिन कौमुदी वसुदेवहिंडी, उत्तरपुराण, नेमिनाथचरित, पांडवपुराण महोत्सव मनाया जाता था, जिसमें नगर की आबालवृद्ध मादि जैन ग्रन्थों में पाया जाता है। समस्त स्त्रियां भाग लेती थीं. किन्तु पुरुषों का इस उत्सव मयुरापुरी-कल्प में वर्णित एक अन्य अनुश्रुति के अनु- में सम्मिलित होना वर्जित था। नगर के बाहर स्थित सार तेईसवें तीर्थङ्कर भ. पाश्र्वनाथ (८७७-७७७ ई० उद्यानों एवं पुष्प वाटिकाओं में यह उत्सव मनाया जाता पूर्व) के समय तक कुबेरा देवी द्वारा निर्मित एवं रक्षित था। ऐसे ही एक अवसर पर सेठ ग्रहद्दास और उसकी
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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