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________________ २१२ प्रनेका वित हुए थे, इसीलिए उन्होंने नेमिनाथ एवं राजुल के ब्रह्म सुता सम मतिदाता, जीवन पर कई रचनायें लिखीं हैं। उनमें नेमिनाथ गुणगण मंडित जग विख्याता । बारह मासा नेमीश्वर गीत, नेमिजिन गीत आदि के नाम वंदवि गुरु विद्यानंदि सूरी, उल्लेखनीय हैं राजुल का सौन्दर्य वर्णन करते हुए इन्होंने जेहनी कीर्ति रही भर पूरी। लिखा है तस पट्ट कमल दिवाकर जाण, रूपे फटडी मिटे जूठडी बोले मोठडी वाली। मल्लिभूषरण गुरु गुरण वक्ता । विडम उठडी पल्लव गोठग रसनी कोटरी बलाली रे तस पट्टे पट्टोपर पंडित, सारंग बयणी सारंग नपणी सारंग मनी श्यामा हरी। लक्मीचन्द महा जश मंडित । लंबी कटि भमरी बंकी शंकी हरिनी मारि रे। अभयचन्द गुरु शीतल वायक, सेहेर वंश मंडन कवि ने अधिकांश छोटी रचनायें लिखी हैं। उन्हें सुखदायक । अभयनंदि समरूं मन माहि, कण्ठस्थ भी किया जा सकता है । बड़ी रचनामों में आदि मव भूला बस गाडे बांहि । नाथविवाहलो नेमीश्वरहमची एवं भरतबाहुबलि छन्द तेह तरिण पट्टे गुणभूषण, हैं। शेष रचनाएं गीत एवं विनतियों के रूप में हैं । यद्यपि बंबवि रत्नकोरति गत दूषण । सभी रचनायें सुन्दर एवं भावपूर्ण हैं लेकिन भरतबाहुवलि भरत महीपति कृत मही रक्षणछन्द, आदिनाथविवाहलो एवं नेमीश्वरहमची इनकी बाहुबलि बलवंत विचक्षण ॥ उत्कृष्ट रचनायें हैं। भरतबाहुबलि एक खण्ड काव्य है, बाहुबलि पोदनपुर के राजा थे । पोदनपुर धन-धान्य, जिसमें मुख्यतः भरत और बाहुबलि के युद्ध का वर्णन किया बाग-बगीचा तथा झीलों का नगर था । भरत का दूत जब गया है। भरत चक्रवत्ति को सारा भूमण्डल विजय करने पोदनपुर पहुंचता है तो उसे चारों ओर विविध प्रकार के के पश्चात् मालूम होता है कि अभी तक उसके छोटे भाई सरोवर, वृक्ष, लतायें, दिखलाई देती हैं। नगर के पास ही बाहुबलि ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की है तो गंगा के समान निर्मल जल वाली नदी बहती है। सात-सात सम्राट् भरत बाहुवलि को समझाने के लिये दूत भेजते हैं। मंजिल वाले सुन्दर महल नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। दूत और बाहुबलि का उत्तर-प्रत्युत्तर बहुत सुन्दर हुआ है। कुमुदचन्द्र ने नगर की सुन्दरता का इस रूप में जो वर्णन अन्त में दोनों भाइयों में युद्ध होता है, जिसमें विजय किया है उसे पढिये-. बाहुबलि की होती है। लेकिन विजयश्री मिलने पर भी चाल्यो दूत पयाणे रे हेतो, बाहुबलि जगत से उदासीन हो जाते हैं और वैराग्य धारण पोडो दिन पोयणपुरी पोहोतो। कर लेते हैं । घोर तपश्चर्या करने पर भी मैं भरत की वीठी सीम सघन करण साजित, भुमि पर खड़ा हुमा हूँ, यह शल्य उनके मन से नहीं हटती वापी कूप तमग विराजित । और जब स्वयं भरत सम्राट् उनके चरणों में जाकर गिरते कलकारं जो नल जल कुंडी, हैं और वास्तविक स्थिति को प्रगट करते हैं तो उन्हें निर्मल नीर नदी प्रति ऊंडी। तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त होकर मुक्तिश्री मिल जाती है। विकसित कमल अमल बलपंती, पूरा का पूरा खण्ड-काव्य मनोहर शब्दों में गंथित है। कोमल कुमुद समुज्जल कंती। रचना के प्रारम्भ में कुमुदचन्द्र ने जो अपनी गुरु परम्परा बन वारी पाराम सुरंगा, दी है वह निम्न प्रकार है अंब कब उबंवर तुंगा। परराविवि पद मावीश्वर केरा, करणा केतकी कमरख केली, बह मामें लूटें भव-केरा। नव पारंगी नागर बेली।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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