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________________ २७२ वर्ष १५ भेजा गया था, वैजयंती की राजकुमारी वैजयंती की मान की उचटती निगाह उसकी मोर देखकर फिर गई, फिर और मान की प्रतीक थी, वीरों के प्राण रहे या जाएं, जैसे कोई अपूर्व और अद्भुत वस्तु नजर में प्राकर निकल किंतु वीरता की आन को वट्टा नहीं लगना चाहिए, किसी गई हो, बाहुबली ने एक बार एक क्षण के लिए फिर भी ओर से सहायता प्राई न देख कर सुरक्षा के विचार से जानबूझ कर उसकी ओर दृष्टि डाली, निमिष मात्र में वैजयंती नरेश ने राजनंदनी को वैजयंती से दूर करने का दोनों की नजरें मिली, राजनंदिनी की आंखों में बाहुबली निश्चय किया, एक दूर प्रदेश में उसके मामा का छोटा सा की वीरोचित वेशभूषा और सौम्य रूप की प्रशंसा थी दृढ़ पर्वत निवास था. कुछ विश्वसनीय व जान पर खेल और बाहुबली की प्रांखों में राजनंदिनी की कोमलता जाने वाले वीर अंगरक्षकों के साथ रात के समय राज- और श्री को देखते रहने का चाव था, किन्तु उनका चंचल नंदिनी को चुपके से गुप्त राह के द्वारा वैजयंती से निकाल __ अश्व उन्हें लेकर आगे बढ़ गया। दिया गया था, साथ में थीं मुंहवाला सखी सहेलियां, अब राजनंदिनी के पास ही बैठी उसकी मुखरा सखी ने वैजयंती यदि हार भी जाए, तो सुरक्षित थी। हँसकर कहा, 'ये निगाहें तो बिजलियां गिराकर ही जब तक वीरसिह को पूरा समाचार ज्ञात हो बाहुबली रह गई। भी अपना अश्व कुदाते हुए उसी स्थान पर पहुँच गए. क्यों ?' राजनंदिनी ने उलाहने से पूछा, उन्होंने भी राजनंदिनी के अंगरक्षकों के नायक से कुछ 'और नहीं तो क्या, सखी ने कहा, 'न अश्व ने टिकने हाल सुन लिया और उनकी कुशाग्र बुद्धि ने क्षण मात्र में दिया और न निगाहों के तेज ने, टिक जाते, तो दिन सारा रहस्य जान लिया । में ही चांद को जी भर न देख लेते।' राजकुमारी की पालकी बाहुबली के पार्श्व पर थी राजनंदिनी हंसी, 'जी भर कर ही क्या करते ? तेरी और उस पर झीना सा परदा पड़ा हुआ था. वहीं से उसने तरह बैठकर बातें थोड़े ही बनाने लगते, जानती नहीं वह बाहुबली की मनोरम मूर्ति देखी, तो बस देखती ही रह गई। अयोध्या के राजकुमार हैं।' उच्छृङ्खल कितु सधे हुए घोड़े पर बाहुबली देवकुमार से तिरछी दृष्टि से देखकर मुखग ने कहा, 'हां जी प्रतीत हो रहे थे और वह उसकी रास कसते हुए कह जानती क्यों नहीं वह अयोध्या के राजकुमार हैं, और रहे थे। मैं तो यह भी जानती हूं कि आप वैजयन्ती की ___ "कहीं माने जाने की आवश्यकता नहीं है. वापस लौट राजकुमारी हैं......... 'बस इतनी ही सी तो बात है।' चलो. जब तक अयोध्या का एक भी वीर जीवित रहेगा, "तू बड़ी वाचाल हो गई है,' राजकुमारी ने सलज्ज कोई वैजयंती की इंट तक को नहीं छू सकेगा।" हंसी हंसते हुए कहा, मोह, कितना अमृत था उस देव वाणी में ! बाध्य राजकुमारी की आज्ञा से पालकियां फिर उठी और होकर कोई अपने घर, अपनी जन्मभूमि को त्यागता है, तो बाहुबली के अंगरक्षक वीरसिंह ने इस छोटे से दल को कितना दुःख होता है उसे राजनंदिनी वैजयंती में उत्पन्न विस्तृत वाहिनी के बीच में ले जा कर छोड़ दिया। हुई, वैजयंती में पली, और वैजयंती में बड़ी हुई. उसके राजनंदिनी को देखकर बाहुबली के मन में एक साथ कारण प्राज वैजयंती पर दुर्भाग्य की काली घटाएं घिर कितने ही विचार माए। आक्रमण त्रस्त अपनी जन्मभूमि आई थीं, वैजयंती आज उसकी रक्षा करने में असमर्थ थी. से अपनी मर्यादा बचाने के लिए मांगी हुई इस राजकन्या कितने दारुण दुःख में डूबा हुआ था वह गृहत्याग. बाहुबली के प्रति उनके मन में दया का सागर उमड़ पड़ा। कन्या ने आकर तो मानों प्राण दान दिया था। सूखे खेतों में वर्षा की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह किसी से हो, यह कृत्य का पानी झिलमिला उठा था। स्वयं में बलात्कार से अधिक गौरव नहीं रखता। उन्हें ___एक नजर अपने त्रास दाता को देखने के लिए दुःख हुमा कि उनका अभिन्न मित्र ही इसमें प्राक्रमणराजनंदिनी ने अपनी पालकी का परदा उठाया, बावली कर्ता का रूप लिए खड़ा है।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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