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________________ १२० अनेकान्त ब१५ समुद्र तट पर अवस्थिति निश्चित है। समुद्री बन्दरगाह ही १. क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, द्रोणमुख कहलाता है। विषय को स्पष्ट करने के लिए डा. दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति (कठोपनिषद्) सांडेसरा की उपर्युक्त पुस्तक से दो उद्धरण पर्याप्त होंगे। २. दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसना (दुर्गशप्तशती) १. दोहिं गम्मति जलेण वि थलेण वि दोणमुहं, जहा इस बारे में और भी स्पष्ट निश्चय के लिए कि भरुयच्छ तामलित्ति एवमादि (जिनदासगणि महत्तर की दुर्गाटवी 'पर्वत पर रहने वाला ग्राम' न था, अपितु केवल आचारांगसूत्र चूर्णि) पृ० २८२ । अटवि विशेष है, पाठक कुवलयमाला के निम्नलिखित उद्ध२. द्रोण्यो नावो मुखमस्येति द्रोणमुखं जल-स्थल निर्ग- रण को पढ़ेंमप्रवेशं यथा भृगुकच्छं ताम्रलिप्तिर्वा (उत्तराध्ययन सूत्र "अस्थि इओ अइदूरे णम्मया णाम महाणई । तीए य पर शान्तिसूरि की वृत्ति, पृ० ६०५)। दाहिणे कूले देयाई णाम महाडई। तीए देयाडईए मज्झे संवाहन-डॉ. नेमिचन्द्र ने संवाहन को उपसमुद्रतट णम्मयाए णाइदूरे विझगिरिवरस्य पायासण्णे अणेय-सउणसे वेष्टित ग्राम माना है। किंतु बृहत्कथाकोशकार ने 'वाहन' सावय-संकिण्णे पएसे एणिग्रा णाम महातावसी।" को मदिरूढ़ कहा है, और उसी का अनुवाद सन्निवेशं नगोपरि' कह कर किया है । ऊपर दिये उद्धरणों को ध्यान में (अनुच्छेद २५२, पृ० १५६) रखते हुए सिन्धुवेलावलयित' 'सिन्धुवेलासमावृत' आदि इसमें रेखांकित शब्दों से स्पष्ट है कि देवाटवी केवल शन्दों को हम द्रोणमुख के विशेषण ही मान सकते हैं। नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर स्थित महान् अटवी का नाम वर्गाटवी-डॉ. नेमिचन्द्र ने 'दुर्गाटवी' का अर्थ 'पर्वत था। उसी देवाटवी में नर्मदा के निकट विध्यगिरि के पादापर रहने वाला ग्राम' कर डाला है जो वास्तव में पिछले सन्न प्रदेश में एणिका नाम की एक महातापसी रहती थी। शब्द का अर्थ है। अटवी शब्द वन प्रदेश के लिए और कभी यह ध्यान देने योग्य है कि यह प्रदेश भी 'पादासन्न, है कभी वन प्रदेश में रहने वाले जन समूह के लिए, अशोक 'अद्रिरूढ़' या 'निगोपरि' नहीं। की धर्मलिपियों में प्रयुक्त है। समुद्रगुप्त की प्रयाग की श्री हरिभद्रसूरि के ग्रन्थ साहित्य और दर्शन के क्षेत्र प्रख्यात प्रशस्ति में अटवि में रहने वालों के लिए 'पाटविक' में अनुपम हैं । आठवीं शताब्दी के भारतीय धार्मिक, बौद्धिक शब्द है। दुर्गाटवी केवल एक अटवि विशेष है जिसमें आवा- और सामाजिक जीवन को समझने के लिए उनके ग्रंथों का गमन अत्यन्त कठिन रहा होगा। दुर्ग शब्द के इस प्रयोग सम्यक् अध्ययन और मनन की अत्यन्त आवश्यकता है। के लिए देखें : हरिभद्र एक युग-प्रवर्तक है। प्रभु तेरे दरसण की बलिहारी ॥ टेक ॥ निरविकार सुखकार अनूपम कोटि चन्द्र दुति धारी॥१॥ भव-दधि पार भये याही ते ये निश्च उर धारी। 'रूप' कहै भव-भव जाचत हूँ पाऊं सरण तिहारी ॥२॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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