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________________ forcer t रात्रि मोजन त्यान सिर्फ 'अन्न, आहार का त्याग बताना भी भ्रांत है यहाँ 'अन्न का अर्थ भोजन ( श्राहार ) सामान्य से है और 'सर्वथा, शब्द मुनियों के लिए नव कोटि से त्याग करने के अर्थ में दिया गया है अर्थात् यह सारा कथन मुनियों के लिए बताया है गृहस्थों का यहां कोई प्रसग ही नहीं है। इसके लिए ऊपर प्रमाण नं ० ७ देखिए । (२) विक्रम सं० १९८५ में पं० जुगलकिशोरजी मुस्तार कृत 'जैनाचार्यो का शासन भेद,, ' नाम का एक महत्वपूर्ण ट्रेक्ट प्रकाशित हुआ है उसमें पृष्ठ २१ से ४१ तक रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे अणुव्रत के विषय में काफी कहापोंह किया है परन्तु इस व्रत के 'अणु, शब्द को मात्र गृहस्थों का समझ लेने से सारा विवेचन अनेक भूल-भ्रांतियों व आपत्तियों से भरा हुआ है धीर कुछ माना ग्रन्थकारो पर श्रन्यथा - दीपारोपण को लिए हुए है मूल में ही भूल होने से यह सारा प्रकरण आमूल चूल सदोष है जिसकी नीचे संक्षेप में कुछ समीक्षा की जाती है। मुस्तार सा० - " गृहस्थों का व्रत एक देश याग से अणुव्रत और मुनियों का व्रत सर्व देशत्याग से महावत कहलाता है । गृहस्थों के ५. श्रणुव्रत होते है । किन्तु कुछ श्राचार्यों ने रात्रिभोजन विरति नाम का छठा अणुव्रत भी उनके बताया है जैसा कि निम्नांकित प्रमाणों से प्रकट है (ख) - - व्रतत्राणाय कर्त्तव्यं रात्रिभोजन वर्जनम् । सर्वधान्नान्निवृत्ते स्तन्प्रोक्तं मतम् ॥ ५ - ७० ।। "आचार सार, ' यह विक्रम की १२वीं शती के माचार्य वाक्य है इसमें कहा गया है कि ( मुनि को) व्रतों की रक्षा के लिए सर्वथा रात्रिभोजन का त्याग करना बीरनंदि के श्रहिंसादिक १. इस ट्रेक्ट के पृ० ६४ पर लेख समाप्ति काल सन् १६२० दिया है इससे लेखन काल और प्रकाशन काल में करीब 2 वर्ष का अन्तर पड़ता है। यह अन्तर वास्तविक है या लेखन काल मे कोई भूल है कुछ निश्चित नहीं । २. इसके बाद वि० सं० १९०७ में 'घनेकांत वर्ष १०३२७-३२८ में परिशिष्ट रूप से इस पर कुछ थोड़ा और विचार किया है। २३ चाहिए और अन्न की निवृत्ति से वह रात्रिभोजन का त्याग छठा अणुव्रत कहा जाता है, । चारित्र सार में चामुंडराय ने श्रावक के रात्रि भोजनत्याग में चारों प्रकार के आहार का त्याग माना है उसी तरह अगर यहां 'अन्न' पद को उपलक्षण मानकर उससे चारों प्रकार के प्रहार का त्याग लिया जाय तो इस विषय में फिर प्रतिमापारी धावक और मुनियों के त्याग में कोई अन्तर नहीं रहेगा दोनों का त्याग एक ही कोटि का हो जायगा यह खटकने की बात है,, । समीक्षा-विजय सं० १९७४ में माणिक चन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई से प्रकाशित श्राचारसार के पृ० ३५ पर तथा वीर सं० २४६२ में लालारामजी कृत हिन्दी टीका वाले ग्राचारसार पृ० १२१ पर उक्तश्लोक नं ६० में 'निवृत्ति' पाठ दिया हुआ है किन्तु मुख्तार सा० ने उसकी जगह मन कल्पित 'निवृते' पाठ बनाकर उत्तरलोक का अर्थ मुनि और श्रावक दोनों के लिए अलग-अलग विभक्त कर दिया है - यह ठीक नहीं है । वीरनंदि आचार सार एकमात्र मुनियों का पाचार ग्रंथ है उसमें कहीं भी धावकों के प्राचार का व्याख्यान नहीं है । जब श्रावकों के ५ अणुव्रतों का ही कोई नामोल्लेख तक वहां नहीं है तब श्रावकों के छठे अवत का कथन उसमे कैसे हो सकता है ? यह सोचने की बात है । प्रणुव्रत शब्द से उसे श्रावकों का ही व्रत समझ लिया गया है जो सबसे बड़ी भूल है जिसका विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में कर आये है उससे पाठक वास्त विक तथ्य को भलीभांति हृदयंगम कर सकते है। १ व्रती श्रावक के रात्रि में चारों प्रकार के प्रहार का त्याग आशाधर ने भी सागार धर्मामृत मे बताया है। आशाघर ने वह त्याग मन वचन काय इन तीन कोटि से ही बताया है जब कि मुनियों के वह नव कोटि से होता है यह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक और गुनियों के रात्रिभोजनत्याग में खास अन्तर है अतः इस विषय में दोनों एक कोटि में नहीं था सकने श्रावकों के नवकोटि त्याग होने में अनेक आपत्तियां है जिसका एक उदाहरण यह है किफिर व्रती स्त्रियां रात्रि में शिशु को स्तनपान नहीं करा १. हिरणार्थ मूलव्रत विशुद्धये। I नक्तं भुक्तिं चतुर्धापि सदा धीरस्त्रिधात्यजेत् ॥४-२४ ॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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