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कविवर बनारसी दास की सांस्कृतिक देन
डा. रवीनाकुमार जैन, तिरुपति विश्वविद्यालय (मांध्र) . अध्यात्म-सन्त बनारसीदास जी समर्थ विचारक अपमानित होना। बनारसीदास ने भी इस धार्मिक संकीसाहित्य-मनीषी एवं सुकवि होने के साथ-साथ अदम्य र्णता से अभिव्याप्त घुटन का तीन अनुभव किया। धर्म उत्साही तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी थे। को इतना विकृत एवं दुराचारित होते देख उनकी प्रात्मा जहाँ भी सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय चेतना को विकृत, कान्ति के लिए विचलित हो उठी। उन्हें स्पष्ट प्रतीत विगलित एवं मूच्छित होते देखा कि समस्त प्रापत्तियों और हुआ कि इस देश की एकात्म संकृति में कटुता, भिन्नता कटु मालोचनामों की चिन्ता न कर उन्होंने अपनी पूर्ण और वैमनस्य के बीज इसी निःसार माडम्बर युक्त धार्मिक शक्ति से उसकी शल्य क्रिया की। कवि ने धर्म और कट्टरता के कारण पनप रहे हैं। प्रध्यात्म मूलक धर्म जो संस्कृति के उदात्त-जीवन्त तत्त्वों से जन-मानस को उद्वे- इस वसुन्धरा की संस्कृति का प्राण है। धीरे-धीरे कुछ लित किया।
भवसन्न एवं मूच्छित सा हो रहा है । क्रान्तद्रष्टा बनारसी मापके समय (१७वीं शती) में समाज में प्राचार- दासजी ने अपनी पूर्ण शक्ति से निर्भीकतापूर्वक धर्म की विचार सम्बन्धी संकीर्णता इतनी बढ़ चुकी थी कि सामान्य शुद्ध अध्यात्म मूलक व्याख्या की और उन्होंने 'जो प्राचार जनता ने धर्म का मूलरूप बनारसीदास निश्चिन्त होकर छ-सात महीने तक दोनों
तथा क्रियाकाण्ड मानव की उसी को मान लिया था।
वक्त एक कचौड़ी वाले से कचौड़ियां लेकर भरपेट खाते अध्यात्मदृष्टि में सहायक धर्म की व्याख्या करने वाले रहे, और फिर जब पैसे पास हुए तो चौदह रुपये देकर हो वही श्रेयस्कर है-ऐसा स्वार्थान्ध भट्टारक एवं पाण्डे | हिसाब भी साफ कर दिया। कि हम भीमागरे जिले के। घोषित किया । कुछ समय उसे अधिकाधिक विकृत, ही रहने वाले हैं, इसलिए हमें इस बात पर गर्व होना
पश्चात् उनका यह प्रान्दोस्वाभाविक है कि हमारे यहाँ ऐसे दूरदर्शी बवालु कचौड़ी अव्यवहार्य एवं बोझिल बना वाले विद्यमान थे जो साहित्य सेवियों को छ-सात महीने
लन अध्यात्ममत के रूप में रहे थे। उन्होंने तब मन- तक निर्भयतापूर्वक उबार दे सकते थे। कैसे परिताप का बड़ी लोकप्रियता के साथ मानी कठोर प्राचार परक । विषय है कि कचौड़ी वालों को वह परम्परा प्रब विद्यमान | प्रचलित हो गया। यही व्याख्या करके धर्म को प्रतिनहीं, नहीं तो पाजकल के महंगो के दिनों में वह मागरे के
अध्यात्म मत और मागे चल साहित्यिकों के लिए बड़ी लाभदायक सिद्ध होती। व्ययसाध्य, जटिल एवं इतना
-बनारसीदास चतुर्वेदी
कर तेरहपन्य के नाम से कृत्रिम कर दिया था कि].
जैनों के सुप्रसिद्ध दोनों ही सामान्य जन के अन्तत् में क्रान्ति की लहरें उठने लगी, सम्प्रदायों (दिग० श्वेताम्बर) में प्रचलित एवं मान्य हो उसका मस्तिष्क इस धर्मान्धता की कटु मालोचना गया । धर्म में इस नये परिवर्तन के कारण उनका प्रारम्भ (मूक रूपेण) करने लगा। यह क्रम एक लम्बे समय में विरोध भी पर्याप्त मात्रा में हुमा; विरोध मूलक ग्रन्थ तक चलता रहा। खुलकर विरोध करने की सामर्थ्य भी रचे गए, परन्तु मागे चलकर जनता के हृदय में उनकी अभी जनता में न थी। पांडे,पंडे (पुजारियों) और भट्टा- वास्तविक दृष्टि घर कर गई और उनका यह अध्यात्ममत रकों का मंदिरों और धर्म पर इतना गहरा प्राधिपत्य था सम्पूर्ण समाज में प्रतिष्ठित हो गया जो आज तक उसी कि उनका विरोध करने अथवा उनके प्रति अविश्वास मान्यता से प्रचलित है। प्रकट करने का सीधा अर्थ था मनुष्य का 'प्रभार्मिक', अध्यात्म संत बनारसीदास जी के जीवन और साहित्य 'नास्तिक', 'शिथिलाचारी' एवं 'मिथ्यादृष्टि प्रादि उपा- का अध्ययन उनके सांस्कृतिक उदात्त कार्यों के अध्ययनधियों से विभूषित' होना, तथा भाए दिन भनेक रूपों में मनन के प्रभाव में अपूर्ण ही कहा जायगा। किसी जाति