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________________ तिरुपरुट्टिकुनरम् (जिन काञ्ची) भी टी. एन. रामचनन् तामिल देश के दिगम्बर जैन चार विद्यास्थानों अथवा अब हम तिरुपट्टिकुनरम् के धार्मिक इतिहास के पतिचतुःसिंहासनों की चर्चा करते हैं; वे थे:-कोल्हापुर, जिन रोचक प्रश्न पर पाते हैं जो उतना ही रोचक एवं अद्भुत काञ्चीपुर, पेनुकोण्डा तथा देहली । मैसूर के जैनों की है जितना कि इसका सांसारिक इतिहास; क्योंकि जिनकी सूची भिन्न है । बगैस (Burgess) ने सुझाव रखा काञ्चीवरम् जैसा स्थान, जोकि जैनों के पवित्र विद्याथा कि दक्षिण अर्काट जिले में वर्तमान चित्तामूर ही स्यात् स्थान में से एक था, अन्यथा नहीं हो सकता। स्थानीय जिन-काञ्चीपुर था, परन्तु स्थानीय परम्परा जो जिन- रीतियों एवम् मन्दिर के भीतर तथा समाधि के स्तम्भों काञ्चीपुरम् के नाम को तिरुपट्टिकुनरम् ग्राम से संबंधित पर के शिलालेखों के अध्ययन से मुनियों की एक व्यवस्थित करती है, तथा प्राचीन काल से काञ्ची की विद्या-स्थान धर्मसत्ता का पता चलता है जिनका इनमें से कुछ लेखों में (घटिका-स्थान) के रूप में उच्च ख्याति एवं अनेक अन्य गुरु एवं शिष्य के रूप में उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है जैन पुस्तकों एवं परम्पराओं में भी काञ्चीपुर का एक कि उनका मुख्य कार्य दिगम्बर जैनधर्म का प्रचार था। विद्या-स्थान के रूप में निर्देश, ऐसे तथ्य हैं जो तिरुपरुट्टि- इनमें से कुछ मुनियों में गहन पाण्डित्य के साथ साथ प्रसाकुनरम् के वर्तमान ग्राम की जिन-काञ्ची से एकरूपता धारण चातरी तथा हिन्दूधर्म जैसे अन्य धर्मों के साथ निर्वाह को प्रमाणित करते हैं। देहली तथा पेनुकोण्डा के मठों का की भावना भी थी, जिससे उन्हें बहुत लाभ हुमा; क्योंकि अब पता नहीं लगता। उन्होंने अपने धर्म के लिए न केवल देश के राजा का काञ्जीवरम् (काञ्ची) के स्मारक इस तथ्य के साक्षी संरक्षण ही प्राप्त किया वरन् हिन्दुओं के क्रोध से उसकी रक्षा भी की। ये मुनि धीरे धीरे धार्मिक प्राधिपत्य के हैं कि नगर बहुत प्राचीन काल से विभिन्न धर्मावलम्बियों अतिरिक्त, देश में अत्यधिक राजनैतिक प्रभाव भी प्राप्त का गढ़ था । बौद्ध, जैन, शंव तथा वैष्णव, प्रत्येक धर्म का करने लगे। बारी बारी से इस नगर पर प्राधिपत्य रहा और प्रत्येक ने अपने प्रभाव के निश्चित चिह्न छोड़े । ह्वेनसांग के अनुसार दक्षिण भारत के साहित्य को जैनों की देन बहुत जो ६४० के लगभग काजीवरम् आया था, काञ्ची इतना अधिक है जिनमें से अधिकांश लेखक धार्मिक उत्साह से प्राचीन है जितना बुद्ध, बुद्ध ने इसके नागरिकों का धर्म प्रेरित थे। संगम युग के दो तामिल महाकाव्यों, मणिमेकपरिवर्तन कराया। धर्मपाल बोधिसत्व का वहाँ जन्म हुमा लाई तथा सिलप्पादिकरम्, से हमें पता लगता है कि जैन और प्रशोक ने इसके समीप कई स्तूप बनवाये ।" भागे मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभक्त बे; मुनि या तपस्वी चलकर वह लिखता है कि "उसके काल में जैन तो बहु जैसे कि जिन-काम्बी में थे, और श्रावक अर्थात् जनसंख्यक थे" और बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्म लगभग बराबरी साधारण । इन उत्साहियों में जो सबसे अधिक विद्यान के थे।" उन्होंने धर्म के प्रभावशाली प्रचार के हेतु अपने मापको प्रारम्भिक काल में बौद्धधर्म के प्रभाव के साथ साथ भिन्न संघों या मठों या सम्प्रदायों में संगठित कर लिया। ही जैनधर्म का प्रभाव भी विद्यमान था । काम्जीवरम् के प्रत्येक संघ अनेक गणों में विभाजित था और प्रत्येक गण प्रायः प्रत्येक मन्दिर का स्थल पुराण लोगों के इस विश्वास अनेक गच्छों में। संघ चार हैं जो दिगम्बर सम्प्रदाय के की पुष्टि करता है कि "काजीवरम् युगों तक एक बौद्ध विशिष्ट अंग हैं: १. नन्दी २. सेन ३. देव भौर ४. सिंह संध नगर रहा और तत्पश्चात् एक जैन नगर"। शिलालेखों से पता चलता है कि इन संघों में सबसे अधिक
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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