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________________ कार्तिकेयानुनेका : एक अध्ययन २४० शिष्य जयदेव मुनि ने अपने अपभ्रंश भाषा के 'भावना कुन्दकुन्द की निम्न माया से स्पष्ट प्रतीत होता है कि संधि प्रकरण' के ६ कडवकों में १२ अनुप्रेक्षाघों का वर्णन भावना शब्द अनुप्रेक्षा के लिए कैसे प्रयुक्त हुमा-"मावहि , किया है। जयदेव हेमचन्द्राचार्य के बाद के प्रतीत होते । अणुवेक्खामो प्रवरे पणवीस भावणा भावि । भावरहिएणहै। इस विवरण में दृष्टान्तों का प्रयोग बहुलता से मिलता किं पुण बाहिर लिंगेण कायव्वं"। कुन्दकुन्द ने भावना शब्द को सीधे अनुप्रेक्षा का पर्यायवाची नहीं कहा है, पर भावना शब्द का प्रयोग-जैन शब्द कोष में "भावना" अशुचित्व को प्रकट करने के लिए सहसा प्रयुक्त किया है। शब्द का विभिन्न प्रों में प्रयोग किया गया है पर यह बट्टकेर ने भावना शब्द ही प्रयोग किया है। 'कत्तिगेयाबड़ा ही रोचक है कि यह शब्द माधुनिक हिन्दी-गुजराती. नपेक्खा' में दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है पर अनुसाहित्य में "अनुप्रेक्षा" रूप में कैसे परिवर्तित हुआ। प्रेक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया है। प्राचारांगा की तीसरी चूलिका का १५वां भाषण 'भावना" मरण समाधि में तो अनुप्रेक्षा का स्थान स्पष्टतया नाम से प्रसिद्ध है जिसे डा. जेकोबी पंचव्रतों का एक भावना ने ही ले लिया है । इस प्रकार धीरे-धीरे यह शब्द अंश मानते हैं। हर महाव्रत को पांच-पांच भावनायें होती भावी साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्ध होता गया। उपर्युक्त हैं जिनसे महावत की स्थिरता होती है ।कुन्दकुन्द ने अपने विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुप्रभा शब्द सर्व चरित पाहुड़ में भावना को महावत के साथ ही सम्मिलित प्रथम ध्यान का अंश था। बाद में धार्मिक अध्ययन के भाग किया है। बट्टकेरने मूलाचार में भावनाओं को व्रतों की रूप में प्रयुक्त होकर जैन साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्धि दृढ़ता का मूल स्रोत माना है । तत्वार्थसूत्र में वे साधारण- पाता रहा है। इस प्रकार अनुप्रेक्षा शब्द प्राकृत, अपभ्रंश, तया द्रत की सहायक मानी गई हैं । जिनसेन ने ज्ञान, दर्शन संस्कृत कन्नड और अन्य आधुनिक भारतीय भाषामों के चरित और वैराग्य के रूप में भावना चार प्रकार की मानी साहित्य में जैनदर्शन एवं पादों के प्रसार, एवं उन्नति हैं । ज्ञान भावना में वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन में विशेष सहायक रहा जो कथानों, पुराणों, काव्यों, नीति और धर्म देशना भादि सम्मिलत हैं, जो स्वाध्याय की शास्त्रों, साधु व गृहस्थों के उपदेशों आदि में प्रयुक्त किया विभिन्न प्रवृतियाँ कही जाती हैं दर्शन भावना में संवेग, जाता रहा है। प्रशम, स्थैर्य, प्रसम्मुधत्व, असाम्य, मास्तिक्य और अनु- जैन धर्म की तरह बौद्ध धर्म भी श्रमण संस्कृति का कम्पा आदि सम्मिलित हैं। इनमें से निर्वेद सहित चार तो प्रबल पोषक रहा है, अतः अनुप्रेक्षाओं की भावभूमि बौद्ध सम्यक्त्व के कारण हैं और शेष तीन सम्यक्त्व के अंग कहे दर्शन में प्राप्त होना स्वाभाविक ही है। धम्मपद २७७, जाते है (स्थैर्य - संशयरुचिः प्रसम्मुधत्वअनुधादृष्टि और बोधिचर्यावतार II २८६ इविदम (lbidem) II 62 असमय)। चरित भावना में पांच समिति तीन गुप्ति, VIII 33, Ibidem v62-3 VIII 52 आदि में अन्तिम परिषह, धर्म, अनुप्रेक्षा और चरित हैं जो संवर के कारण प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व प्रादि भाव-गमों का वर्णन है । वैराग्य भावना में प्रानन्द की निरपेक्षता, शरीर की मिलता है। माधव संवर, निर्जरा भावनाएँ विशुद्ध तया प्रकृति का सतत चिन्तन और चरित्र संरक्षण की भोर जैनत्व से संबंधित है, परलोक बोधिदुर्लभ और धर्म भावना दृष्टि रहती है। इन भावनामों से मानसिक शांति प्राप्त के विचार जैन और बौद्ध साहित्य में समान रूप से प्राप्त होती है । तीर्थकर नाम-कर्म के १६ कारण भी भावनायें होते हैं । अनुप्रेक्षा शब्द बौद्ध साहित्य में १० अनुस्सति या षोडश कारण भावनायें कहलाती हैं । इस प्रकार धीरे- के नाम से प्रसिद्ध है जिनका विशुद्धि मग्ग में निरूपण है, धीरे अनुप्रेक्षा शब्द भी भावना रूप में प्रयुक्त होने लगा वे हैं बौद्ध, धम्म, संघ, शील चाग, देवल, मरण कायगत भले ही उसका प्रयोग किसी अन्य अर्थ में हों। अनुप्रेक्षा मान पान, और उपशम अनुस्सति । अनुस्सति शब्द का शब्द सर्व प्रथम ठाणांग पोर (abavaiya) मोववाइय अर्थ मनुस्मृति है जो अनुप्रेक्षा शब्द के बिल्कुल ही नजदीक में मिलता है, जो शिवार्य की भगवती पाराधना में भी है। है। इसका स्पष्ट अर्थ है ध्यान अथवा पात्म-दर्शन जैसा
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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