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________________ रानी मृगावती लेखक-श्री सत्याश्रम भारती चित्रकार ! तुम्हारी कल्पना शक्ति अद्भुत है । ऐसी विवाह करने का अधिकार है, फिर भी उनकी काम तृष्णा सुन्दरी की कल्पना करके चित्र बनाना सहल नहीं है। नहीं मानती, वे पर-स्त्रियों को छीनने की घात लगाये 'नही महाराज! यह कोरी कल्पना नहीं है। जिस रहते है। सतीत्व का बोझ स्त्रियों के सिर पर है और रमणी का यह चित्र है वह सशरीर मौजूद है। पुरुषों के लिए पाप भी गौरव की बात है । यदि पुरुष स्त्री _ 'ऐं ! क्या कहा ? सशरीर मौजूद है ! हो नहीं का पति (स्वामी) है तो स्त्री पुरुष को (स्वामिनी) क्यों सकता। ऐगा सौन्दर्य स्वर्ग में भी नहीं हो सकता, मर्त्य- नहीं है; जरूर है। लोक की बात तो क्या है ?' इन सब विचारों से उसका सिर चकराने लगा। फिर नहीं महाराज! मैं सच कहता हूँ, यह रानी मृगावती भी उसने किसी तरह अपने को सम्हाल कर भीतर प्रवेश का चित्र है, जो कि कौशाम्बी नरेश की पत्नी है।' किया। 'ऐं ! यह कौशाम्दी नरेश की पत्नी है ! प्रोह ! महारानी को देखकर चण्प्रद्योत चौक पड़ा। उसने एक भिक्षुक के घर में यह रत्न पाहुया है। मेरे रहते धीरे से हाथ रखकर पूंछा-क्या प्राज तबियत खराब है? उसे क्या अधिकार है कि वह इस रत्न का स्वामी बने । 'नहीं।' दूत।' 'फिर भोजन क्यों नहीं किया ! इाका कारुण !' 'महाराज !' 'कुछ नहीं।' 'जानी और कौशाम्बी नरेश को सूचित करो कि 'कुछ तो।' यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो मृगावती सरीखे 'कह तो दिया-कुछ नहीं।' रत्न को मेरे हवाले करो। बन्दर के गले में मोतियों की मृगावती के पा जाने पर हमारे साथ कंसा व्यवहार माला शोभा नहीं पाती। प्रधान जी ! पत्र लिखकर दूत रक्खेंगे, क्या इस बात का अभ्यास कर रहे हो ? के हाथ भेज दो।' चण्डप्रयोत चौक पड़ा। वह समझ ही नहीं सकता था 'जो आज्ञा।' कि क्या उत्तर दिया जाय। थोड़ी देर में उसने अनमने दूत को विदा करके राजा चण्डप्रद्योत अपने शयनागार मुंह से उत्तर दिया-"जैसा होगा देखा जायगा।" में चला गया; परन्तु वहां भी उसे चैन नहीं मिला। उस राजमहिपी पीछे हट गई, और लौटने लगी। इतने में दिन चण्डप्रद्योत ने भोजन ही न किया, रणवास में भी न मालूम चण्डप्रद्योत के हृदय में क्या पाया कि उसने बेचैनी फैल गई। सन्ध्या होते ही राजमहिषी ने शयनागार उठकर महारानी का हाथ पकड़ लिया। महारानी ने में प्रवेश किया। गम्भीरता से कहाराजमहिपी के ऊपर चण्डप्रद्योत का सबसे अधिक प्रेम 'मुझे रोकते क्यो हो?' था। राजमहिपी सुन्दरता की खानि, प्रेम की पुतली होने 'कुछ बात करना है।' के साथ ही तेजस्विनी भी थी। उसे अपने स्त्रीत्व का अभि- 'क्या बात !' मान था। सि समय उसने चण्डप्रद्योत की अवस्था का 'तुम इतनी नाराज क्यं हो गई हो।' हाल सुना और उसे यह मालूम हुआ कि एक स्त्री के पीछे 'क्या तुम्हें इतना भी नहीं मालूम ? स्त्रियों के विषय यह सब काण्ड उपस्थित हुआ है, तब उसका हृदय तिल- में आचरण सम्बन्धी झूठी सच्ची आशंका होने से ही पुरुषों मिला उठा। पुरुषों को एक नहीं, दो नहीं; बल्कि बीसों का खून खौल उठता है, और वे मरने मारने पर उतारू
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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