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________________ माविकालीन 'चरी' रचनामों की परम्परा का उदमन और तिकास ११ प्रागरे के पास स्थित सम्भवतः इस पुर में कवि ने नगर के (२) सं० ११६९ में लक्ष्मणगणि द्वारा विरचित चौराहे का वर्णन किया है, जो चर्चर ध्वनि से उद्दाम था। सुपासनाहचरिय में भी चच्चरी का उल्लेख मिलता हैश्री अगरचन्द नाहटा का मत है कि रास की भांति तवल तवणीय-दंड-ऊसिय-चीणांसुय-धय-सहस्स-रमणीया। एवं नृत्य के साथ विशेषतः उत्सव आदि में गाई जाने वाली रमणीय-रमणि-सहरिस-पारंभिय चच्चरी-गीया ॥२३,५५ रचना को चर्चरी संज्ञा दी गई है। तपाकर शुद्ध किए हुए सोने के दंड ऊपर ऊंचे किए इन सब उल्लेखों के अतिरिक्त चर्चरी का एक छन्द हुए चिनाइ कपड़ क सहस्रा रमणाय धय (ध्वज न हुए चिनाई कपड़े के सहस्रों रमणीय धय (ध्वज) और विशेष के रूप में भी वर्णन मिलता है। यह वणिक छन्दों सहर्ष चर्चरी गीतों को प्रारम्भ करने वाली रमणीक रम सह में समवृत्त का एक भेद है। मानु के छन्द प्रभाकर में इस णियों वाली (वाराणसी नगरी)। चर्चरिका छंद का लक्षण रस जब भरगण के योग से बनता (३) सं० १२११ मां जिनदत्तसूरि ने अपने गुरु श्री है जिसका रूप (15, 15, 11, 151, 51, 5Is) है। प्राकृत जिनवल्लभसूरि के लिए गुरु स्तुति अपभ्रंश और तत्कालीन पिंगल में (देखो २:१८४) इस छन्द का नाम चर्चरी मिलता देशी भाषा मे की है। है। छंदोनुशासन (देखो हेमचन्द कृत २:३१२, ३१२) में उस पर संस्कृत में सं० १२९४ में जिनपाल उपाध्याय उज्जवल, छन्द : सूत्र (८-१६) में विबुध प्रिया आदि नाम ने एक भाष्य लिखा है । उन्होंने उस स्तुति का नाम चर्चरी मिलते है। आलोचकों ने इस चर्चरी छन्द का शिल्प इस रक्खा है । यह प्रथम मंजरी भाषा' में तथा नृत्य के सहित प्रकार माना है। इस छन्द में १०,८ वर्गों पर यति होती गाई जाती हैं। उन्ही जिनपाल उपाध्याय ने जिनदत्तसूरि है पर पिंगल में ८,१० वर्णो पर यति मानी है। इसका के अपभ्रंश काव्य नाम से 'उपदेश धर्म-रसायन-रास' नामक मात्रिक रूप गीतिका छन्द है। संस्कृत टीका रची है उसके प्रारम्भ में बताया गया है चर्चरी-रासक-प्रख्ये प्रबन्धे प्राकृते किल । उक्त प्रमाणों के अतिरिक्त प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध वृत्ति प्रवृत्ति-माधत्ते प्रायः कोऽपि विचक्षणः ।। चर्चरी सम्बन्धी और भी जितने प्रमाण तथा विभिन्न अर्थ (४) 'प्राकृत-पिंगल' में चर्चरी नामक एक छन्द सूचक विवरण एवं वर्णन मिलते हैं वे इस प्रकार है । विशेप है। प्राकृत पिगल सूत्र तथा हेमचन्द्र अपने ग्रन्थ (१) सं० १०६४ में चन्द्रावती में धनेश्वर सूरि द्वारा छन्दोनुशासन में २३१ वें पद्य में चर्चरी का लक्षण इस विरचित प्राकृत सुरसुन्दरीचरिय ग्रन्थ में चच्चरी का प्रकार स्पष्ट करते हैं-आदि में रगण (गालगा) फिर उल्लेख देखिए सगण (ललगा) फिर एक लघु फिर ताल आदि गुरु विकल तो एरिसे वसंते दिसि-दिसि पसरंतपरयासद्दे। मध्य में हो । फिर एक गुरु । फिर एक लघु और एक गुरु, वित्थरिय-चच्चरी-रव मुहरिय-उज्जाण-भूभागे ॥३,५४ दो लघु एक गुरु, एक लघु और एक गुरु-उद्धृत पद इस प्रकार की वसंत ऋतु में दिशा-दिशा में कोयल के को देखिए - शब्द प्रसारित हैं और विस्तार को प्राप्त हुए चर्चरी के रव . १. पटमंजरी नामक राग नारद कृत संगीत मकरंद में से मुखरित उद्यान के उस भूभाग में-(आवाज करते थे) बताई गई है। वि. की ७वीं शताब्दी में हुए अनेक कोलंत कामिणी-यण रणंत-नेउर रवेण तक पटमंजरी काव्य यथा लूइपाद विरचित चर्याचर्य नियरो (तरुणी-नियरो) मादि काव्य महामहो० हरप्रसाद शास्त्री द्वारा सम्पामयण-महसव-तुट्ठो गायइ इव चचरि जत्थ ॥३,१०८ दित तथा बंगीय-परिषद् द्वारा प्रकाशित बौद्ध गान 'चच्चरी-सद्द जच्चंत बहु-वामणं' ॥३,३१५ और दोहा अन्य में मिल जाते हैं। पदमंजरी भाषा १. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक में सं० १३५८ में रचा हुमा एक अपभ्रंश का काव्य ४ सं० २०१०, पृ० ४३२ पर श्री अगरचन्द नाहटा लिखित है उससे स्पष्ट होता है कि पट-मंजरी भाषा में प्रणीत प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संज्ञाएं-लेख । रागों की प्रतिष्ठा अवश्य रही होगी।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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