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________________ सिडहेमचना-समानुशासन अन्य व्याकरणों में तीन दोष कर सकें, सूत्रों के उद्देश्य की मीमा का निर्धारण करने वाले जहाँ दो तीन सूत्रों से विवक्षित विपय स्पष्ट हो जाता प्रत्युदाहरण यह निश्चित रूप से बता सकें कि इस सूत्र के इतने ही उदाहरण होंगे, अधिक नहीं; उदाहरणों एवं प्रत्युहो वहाँ अधिक सूत्र बनाना बुद्धिमानी नहीं है । हेमचन्द्र दाहरणों के ज्ञान के साथ ही ऐतिहासिक, सामाजिक, शब्दानुशासन को छोड़कर अन्य व्याकरणों में विषय विभाग सांस्कृतिक आदि विषयों का ज्ञानोपार्जन भी साक्षात् या की दृष्टि से यह दोष स्पष्ट है । व्याकरणों के विषय में यह परम्परा से हो सके; इतना ही नहीं अपितु, पढ़ते-पढ़ाते प्रसिद्धि है "अर्धमात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैया समय यदि अनायास ही विषय स्पष्ट हो तथा जितना अपेकरणाः ।" अतः प्रत्येक व्याकरण अपना विवक्षित अर्थ सक्षेप क्षित हो, उतने ही अंश का ज्ञान प्राप्त कर सन्तोष हो जाय में कहना चाहता है। किन्तु इस कार्य में हेमचन्द्राचार्य तभी व्याकरण, व्याकरण है । इसमें सन्देह नही कि इस सर्वाधिक सफल हुए है । अल्प वाक्यों वाले प्रकरण से तथा अल्प अक्षरों वाले सूत्र से यदि प्रतिपाद्य विषय एवं विवक्षित व्याकरण में व्यापक रूप से ये सभी तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। अर्थ प्रकट हो जाय तो वही रचना सुन्दर तथा विस्तार-दोष यदि एक विषय के प्रतिपादन के समय अन्य विषय का प्रतिसे विमुक्त समझी जाती है । किन्तु विस्तार दोप को हटाने पादन होने लगे, सन्धि के प्रकरण में समास विधायक सूत्र के लिए यदि भापा कठिन अथवा भाव दुरूह हो जाय, तो पा जायं; नाम के प्रकरण में कारक सूत्रों की चर्चा हो ऐसा संक्षेप तो "प्रजा (बकरी) निकालने के प्रयत्न में ऊँट तथा कारक के प्रकरण में पत्व-णत्व एवं समास-विधायक प्रविष्ट हो गया ।" इस लोकोक्ति की भाँति हास्यास्पद ही सूत्रो को पढ़ दिया जाय तो विद्यार्थियों को बहुत बड़ी कठिहोता है। सूत्रो की रचना कठिन शब्दों में हो, उनकी व्याख्या नाई का सामना करना पड़ेगा। भी कठिन शब्दों एवं दुर्गम शैली में हो, बार-बार विचार ये उपर्युक्त दोप न्यूनाधिक रूप से प्रत्येक व्याकरण में करने पर भी अर्थ सहज ही समझ में न पाता हो, सूत्रों के पाये जाते है । इसकी थोड़ी चर्चा यहाँ कर देना प्रावश्यक अथं ज्ञान के लिए वृत्ति लिखी जाय, उस वृत्ति को समझने में अनेक संशय खड़े हो, जिस सूत्र का बोध सरलता से हो प्रतीत होता है। सकता हो उसके लिए कठिन मार्ग का अवलम्बन किया पारिणनीय व्याकरण में प्रतिविस्तृतत्व दोष जाय और कठिन विषय का स्पर्श ही न किया जाय-पादि ऐमी अव्यवस्थाएँ है । जिनसे व्याकरण सर्वथा दुष्ट हो जाता पाणिनि ने जिम कार्य के लिए चार सूत्र' पढ़े है उसी है। इस दोष के निगकरण के लिए ऐसे व्याकरण की कार्य को हेमचन्द्र ने अयोगीत ११११३७ इस एक सूत्र से रचना होनी चाहिए. जिसमें ऐसी शैली अपनाई जाय, पढ़ने सम्पादित किया है। के साथ ही विषय का सम्यक् ज्ञान हो तथा कठिन विषय भी सरलता से वणित हों। प्रागे चलकर कारक प्रकरण मे पाणिनि ने 'ध्रुवमपाये प्रत्येक विषय को स्पष्ट करने के लिए शृखला की पादनम्" (पा० १।४।२८) इस सूत्र से अपादान कारक कड़ियों की भॉति सूत्र आपस मे सुव्यवस्थित एवं सुसम्बद्ध ___ को व्यवस्था की है, किन्तु वह व्यवस्था भी अपूर्ण रह गई, हों, सूत्रों का समन्वय करते समय पूर्व सूत्रो से अनुवृत्त या अतः उन्होने अन्य सूत्र भी लिखे है। तथापि उसकी पूर्ति न अधिकार द्वारा प्राप्त पद बिना किसी बुद्धि-व्यायाम के स्वयं उपस्थित हो सकें, सूत्रों में पाने वाले पदों के विवरण १. "उपदेशे ऽजनुनासिक इत्" (पा. १२३४२), 'हलके सम्पादक उदाहरण भी गंगा के निरवच्छिन्न प्रवाह की न्त्यम्" (पा० ११३।३) "प्रदर्शनं लोप:' (पा० १।१।६०) भांति निरायास उपस्थित होकर विषय को अधिक सुस्पष्ट तथा "तस्य लोपः” (पा० १।३।६)।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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