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अनेकान्त
भोजराज की ग्रन्थ राशि तथा भोज नामाङ्कित व्या- अध्ययन अध्यापन होना चाहिए।" करण को देखकर और उनकी रची हुई व्याकरण के प्रति- मालव राज्य वैभव के साथ विद्वानों तथा उनकी रिक्त शास्त्रों की भी पुस्तकें हैं, ऐसा सुनकर सिद्धराज ने रचनामों से पूर्ण है; किन्तु मेरे राज्य में विविध वैभव होते सोचा होगा कि मेरे राज्य (गुजरात) में ऐश्वर्य है उत्तम
हुए भी साहित्य एवं साहित्य निर्माता क्यों न हों, इस अभिविलास स्थान भी हैं, सम्पत्ति की सरितायें भी प्रवाहित हैं। लाषा से भी सिद्धराज क्षुब्ध हुए होंगे। विद्यालय भी हैं और बड़े-बड़े विद्या-व्यसनी विद्वान् भी हैं,
अध्ययन काल में अति विस्तृत होते हुए भी अपर्याप्त सब कुछ है, किन्तु स्वकीय (अपना) साहित्य नहीं है। हम
एवं प्रति परिश्रम करने पर भी सम्यग्ज्ञान कराने में असलोगों को परकीय (पराये) साहित्य पर ही निर्भर रहना
मर्थ, अन्य व्याकरणों से भयभीत गुर्जरदेश के छात्रों के पड़ता है। अत: कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे
भय को समूल उन्मूलन करने के प्रयत्न ने भी राजा को परकीय साहित्य की परवशता दूर होकर अपने स्वतन्त्र
व्यग्र किया होगा। यह सारा रहस्य 'कथितेन' इस पद से साहित्यसे हमारा देश प्राणवान् हो । राजा पायेंगे और
विभाबित हो रहा है । इतना ही नहीं, नवीन साहित्य के जायेंगे उनका अधिकार समाप्त हो जाएगा राज्याधिकारी भी
निर्माण की नरेश प्रेरणा से समृद्ध राज्य को साहित्य से समृद्ध इस नियम के अपवाद न होंगे, राज्य-नियम बदलेंगे, राज
बनाने की भावना के साथ ही गुर्जरदेशवासियों के गौरववैभव विलीन हो जायेगा । सम्पूर्ण संहारक वस्तुयें भी नष्ट
पूर्ण जीवन निर्वाह करने की अनेक तथ्यात्मक भावनायें भी हो जायेंगी, परन्तु संस्कृति और साहित्य ही अमर होंगे।
पूर्वोक्त प्रस्तावना-पद्य से प्रकट होती है । अतएव राजा को ये ही प्रतीतकाल के भव्य इतिहास की सूचना देते हुए
जितना धन्यवाद दिया जाय, स्वल्प है। इस प्रसङ्ग रमणीय रचना को प्रेरणा देकर गुजरात का गौरव बढ़ा
के सम्यक् आलोचन से, पूर्वोक्त पद्य के अनुसन्धान येंगे। इतना ही नहीं, गुजरात का यश, सूर्य और चन्द्र के
से तथा इस महान् ग्रंथ के परिशीलन से अनेक अन्य सदश दिगन्त-व्यापी होगा। सिद्धराज की इस महत्वाकांक्षा तथ्य भी अभिव्यक्त होते है। तथापि प्रशस्ति में कहे ने ही हेमचन्द्राचार्य के हृदय में रचना का भाव अंकुरित
हुए तीन दोषों को व्याकरण शास्त्र से दूर करने के लिए किया । वही रचना "सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नाम से ही इस शब्दानशासन की रचना हुई, यह बात तो स्पष्ट ही प्रसिद्ध हुई। इसी प्राशय को आचार्य ने ग्रंथ की प्रशस्ति में
प्रकट होती है। प्रकट किया है:
___'पाजकल जितने भी व्याकरण प्रचलित हैं, ये सब प्रति तेनाति विस्तृतदुरागभविप्रकीर्ण
विस्तृत, अन्यस्थित तथा दुर्गम है, परिणामत. बोध कराने शब्दानुशासनसमूहकदथितेन ।
में अपर्याप्त हैं, यह यदि सिद्ध हो जाय तो यही व्याकरण अभ्यथितो निरूपमं विधिवद् व्यधत्त
सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता शब्दानुशासनमिदं मुनिहेमचन्द्रः ॥३५॥
है । गुणग्राही विद्वानों ने इस व्याकरणकार को 'कलिकालइसका तात्पर्य यह है कि "मालवराज भोज व्याकरण
सर्वज्ञ' को उपाधि दी है। निर्माता थे । अपने राज्य में अपना ही व्याकरण चलाते थे। विद्याभूमि गुजरात में भी कलाप-व्याकरण की तुलना
इस शब्दानुसान की 'दोषत्रय से विमुक्ति की चर्चा में भोज-व्याकरण की अधिक प्रतिष्ठा थी। अतएव सम्भवतः .
सम्भवतः अमरचन्द्र सूरि ने अपनी बृहत्प्रवचूणि में की है। सिद्धराज अपने देश में अपना व्याकरण न होने से दुखी शब्दानुशासनजातमस्ति, तस्माश्च कथमिदं प्रशस्यतमहुए होंगे तथा उनको अपने पुस्तकालय में इस प्रकार की मिति ? उच्यते, तद्धि अतिविस्तीर्ण विप्रकीर्ण च । कातन्त्रं शास्त्र रचना का अभाव खला होगा। प्रत्येक राज्य में वहीं तर्हि साधु भविष्यतीति चेन् न, तस्य सङ्कीर्णत्वात् । इदं तु के पण्डितों के रचे व्याकरणों का प्रचार है अतः मेरे राज्य सिद्धहेमचन्द्राभिधानं नातिविस्तीर्ण न च सङ्कीर्ण इति में भी यहीं के विद्वानों द्वारा निर्मित सर्वाङ्गपूर्ण शास्त्रों का भने व शब्द-व्युत्पत्तिर्भवति ।