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________________ एक छोटी-सी बालिका भो तालियां पीटकर बोल उठी 'नहीं रे ! उनके नाना हैं ही नहीं' 'मजा, मजा। परन्तु गेंदवाले लड़के को यह बात रुचिकर 'बाह ! बिना नाना के भी क्या कोई हो सकता है ?' न हुई। वह बोला, हूँ ! खराब हो जायगी। 'क्यों नहीं हो सकता?' 'तो क्या देखने के लिए है ?' 'उनके बाप ही नाना है। 'खेलना नहीं था तो लाये ही क्यों ?' 'तुम्हें नाना के साथ खेलना है या गेंद के साथ ?-यह 'गेंद वाले लड़के ने सोचा, कहीं मेरी गेंद छिन न जावे कह कर उस बड़े लड़के ने एक लड़के को गेंद दे मारी। इसलिए उसने गेंद पाकिट में रख ली और पाकिट को उसने उठाकर तीसरे पर गोला छोड़ दिया। बस, उस समरहाथ में पकड़कर बोला-'नहीं दूंगा'। अभी तक देने लेने क्षेत्र में नाना की जगह गेंद ने ले ली। गेंद-युद्ध मध्यान्ह की बात ही न थी। लेकिन बात जब निकली तो सभी पर जा पहुंचा, परन्तु कुंवर वहां से टस से मस न हुए। वे लड़के चिल्ला उठे-'क्यों न दोगे ?' परन्तु इसी समय इस मांखें फाड़कर जमीन की तरफ़ देखते हुए इस तरह खड़े समर-क्षेत्र में एक नए सैनिक का प्रवेश हुआ। रहे जैसे कोई पत्थर की मूर्ति हो। एक पन्द्रह वर्ष का बालक जिसमें सुन्दरता के साथ हष्ट-पुष्टता और चञ्चलता के साथ गाम्भीर्य था, वहां रानी ने अपने बाल्य-जीवन पर पर्दा डाल रक्खा था। पाया । उसे देखकर सब लड़के शांत हो गए। जिसकी गेंद राज-महल में किसी की ताकत नहीं थी जो उसके छड़ाई जा रही थी वह लड़का बोल उठा कुंवर जी, ये बाल्यजीवन की चर्चा मुंह पर ला सके । बड़ी-बड़ी दासियां हमारी गेद छीनते हैं । कुंवर जी कुछ बोलें, इसके पहिले भी जिस ने रानी को इसी घर में अपनी गोद में खिलाया ही एक लड़का बोल उठा-हम तो खेलनेके लिए गंद मांग था, कुछ न कह सकती थीं। श्रावण के दिन थे युवती रहे थे, छुड़ाते थोड़े ही थे। कुंवर ने कुछ न कहकर चुपचाप दासियों को अपने पीहर के दिन याद पाते थे। कदम की अपने पाकिट से एक सुन्दर गेंद निकाली और कहा कि- डाल पर झूला बांधकर झूलने की इच्छा होती थी । मापस लो, इससे खेलो! में यह चर्चा भी करती थीं, परन्तु छिपकर बाल्यकाल की 'महा ! क्या बढ़िया गेंद है !' प्रत्येक बात पर्दे में ही होती थी । यह पर्दा-प्रथा रानी को 'उससे सौ गुणी अच्छी है।' ऐसी ही मालूम होती थी जैसे कि कुरूपा स्त्री को बूंघट एक छोटा लड़का सोच रहा था कि मच्छी गेंदें सबके की प्रथा । नाना ही दिया करते हैं, इसलिए वह उस लड़के से बोला ऐसी कौन माता होगी जिसे अपरी सन्तान से प्रेम न जिसकी गेंद छड़ाई जा रही थी-'लो! कुंवर जी के नाना हो ? फिर माताओं को पुत्रियों से तो ज्यादा प्रेम होता तुम्हारे नाना से भी अच्छे हैं । उनकी गेंद तेरी गेंद से सौ- है। परन्तु रानी को अपनी पुत्री से विशेष प्रेम न था। गनी अच्छी है।' फिर उसने कुवर की तरफ मुड़कर कहा यदि होगा भी तो किसी कारण से उसने प्रकट नहीं किया क्या कुंवर जी ! तुम्हारे नाना ने दी है न यह गेंद ? था। लड़की का कोई भी खेल रानी को अच्छा न लगता लड़कों में जो सबसे बड़ा और समझदार था उसने था। वह चाहती थी कि मेरी बेटी खेले और हंसे, परन्तु उस छोटे लड़के को धमकाकर वहा-'चुप ऐसी बात मत परन्तु उसे हंसते-खेलते देखकर रानी की मांखों में प्रांस आ जाते थे। बालिका इसका रहस्य न समझती थी, 'क्यों, इसमें क्या बुराई है ? परन्तु या तो वह स्वयं रोने लगती थी या हँसना खेलना उसका यह प्रश्न सुनकर सब लड़के अपने अपने मन की बन्द कर देती थी। बात कहने लगे । एक बोला-'जब कुंवर जी के नाना नहीं लड़की के बाद रानी के एक लड़का भी हुमा । रानी हैं तब उनसे नाना की बात क्यों पूछना ?' के हृदय का सन्तान प्रेम, जो कि हृदय में किसी तरह बंधा 'क्यों ? क्ण रहे नहीं हैं ?' हुमा था, प्रवाह के जल की तरह बांध फोड़कर बह निकला कहना।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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