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________________ 'दर्शन' का अर्थ 'मिलना' लेखक -- श्री रतनलाल कटारिया संस्कृत में दर्शनार्थक जितनी भी धास्तुएँ हैं, उनका अर्थ 'मिलना' भी होता है । उदाहरण के लिए निम्नःत्रित पद्य पर दृष्टि दीजिए "रिक्तपाणिनं पश्येत् राजानं देवता गुरु” यहाँ 'पश्येत्' किया है, जिसका पर्व घर 'देखें' किया जाय तो ठीक नहीं लगता और निर्दोष भी नहीं रहता है; उसकी जगह 'मिलें अर्थ 'कया जाय तो ज्यादा अच्छा लगता है और निर्दोष भी रहता है। उपर्युक्त पूरे पद्य का ठीक अर्थ इस प्रकार होगा "खाली हाथ राजा, देवता और गुरु से नही मिले" । कोशों में भी दर्शनाक पातुयों धीर शम्दों का पर्व"मिलना, साक्षात्कार, मुलाकात" भी दिया है । अंग्रेजी में भी दर्शनार्थक 'See' धातु का प्रयोग Visit, Meet मिलना, भेंट करना के अर्थ में भी पाया जाता है। यह तथ्य दृष्टि में न होने से कुछ विद्वान् मंपाबकों अनुवादकों ने इस विषय में गलतियों की हैं। उदा हरण के तौर पर उनके २-३ नमूने नीचे दिए जाते है(१) डागम पवला टीका पुस्तक १ पृष्ठ ७१ (प्रस्तावना पृष्ठ १२, परिशिष्ट पृष्ठ २७) लिखा है - "जिणपालियं दट्ठूण पुप्फयंताइरियो वणवामविसयं - समीक्षा यहाँ 'पण' का जो देखकर' या 'देखने के लिए किया है वह ठीक नही है। इसकी जगह 'मिलकर या 'मिलने के लिए करना चाहिए । गदो"-- अर्थ – जिनालित को देखकर अथवा देखने के लिए भूतबलि भी द्रविड देश को प्रस्थान कर गये । पुष्पदंत याचार्य बनवास देश गए। 'देखने के लिए' अर्थ मे यह भाव 'जिनपालित' या तो कोई छोटे से जिन्हें देखने के लिए पुष्पदंताचा दोनों बातें नहीं थीं । ग्रगर दोनों झलकता है कि शिशु थे या बीमार थे वनवास देश गए। किन्तु बातें हों भी तो किसी मुनि के लिए ऐसा करना उचित नहीं है, यह उसकी पदचर्या के विरुद्व है । प्रत 'दण' का अर्थ 'देखने के लिए' करना समुचित नही है, उसका अर्थ 'मिलने के लिए करना चाहिए। यह प्र फबता हुआ है और इससे अभिव्यक्ति भी ठीक होती है । पुष्पदताचार्य का निपालित से मिलने का उद्देश्य उन्हें दीक्षा देकर सिद्धांतसूत्र पढाने का था, यह धवला टीका के उसी प्रकरण में आगे बताया है । (२) उपर्युक्त प्रकरण इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार में इस प्रकार है वर्षाकालं कृत्वा विहरन्तौ दक्षिणाभिमुखं । ११॥ जग्मतुरष करहाटे तयोः स यः पुष्पदंतनाम मुनिः । जनपालिताभियान दृष्ट्वासी भागिनेयं स्वं ।। १३६ ।। दवा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य वनवासम् । तीच भूतबलर मथुरायां द्रविडदेशेऽस्थात् । १३३ । (तत्वानुशासनादि १०५) 'जैन सिद्धात भास्कर, भाग ३ किरण ४' में पं. व जुगल किशोर जी मुख्तार ने धवलादि के ग्राधार पर "श्रुतावतार कथा" लिखी है, उसके पृ० १३० पर मुख्तार मा० ने लिखा है "वषयोग को समाप्त करके तथा जिनपालित को देखकर पुष्पदंताचार्य तो वनवास देश को चले गए और इन्द्रनंदिश्रुतावतार मे जिनालित को पुष्पदत वा भानजा लिखा है और दक्षिण की ओर विहार करते हुए दोनों मनियों के कहा पहुँचने पर उसके देखने का उल्लेख किया है।' गर्भाधा मुस्तार साहब ने भी जो देखकर' और 'देखने का' शब्द प्रयोग किया है वह ठीक नहीं है, उसकी जगह 'जिनपालित से मिलकर और उससे मिलने वा शब्द प्रयोग होना चाहिए ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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