SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ वर्ष १५ उनका कुटुम्बी था, उनका राजकुमार था। बाहुबली प्रजा इस स्फुरणदायक वातावरण से गुजरता हुमा रथ राजकी एक प्रांख थी, तो भरत दूसरी प्रांख थी। महल की मोर चला। राजपथ पुष्पों की सुरभि से महक मुख्य द्वार के बाहर हाथियों की पंक्तियां शुभागमन रहा था। इस राज्योचित अभिवादन को सहर्ष ग्रहण करते में सजी खड़ी थीं । हर्ष की दुंदुभि ऊंची उठाये उद्घोषक हुए भरत बाहुबली की मुसकराहट में अपनी मुसकराहट खड़ा था। बाहुबली रथ से उतर कर घोड़े पर पा गए थे। मिला देता था। बारबार सूर्य के ताप को हथेलियों से रोक कर वह दूरक्षितिज राजमहल के द्वार पर महाराज ऋषभदेव अपनी आँखें की ओर देख लेते थे, जहां अब धूल के गोले उठते दिखाई पसारे खड़े थे। अभी-अभी चर ने उन्हें दोनों कुमारों के देने लगे थे। पुन: अयोध्या प्रवेश का समाचार दिया था। रथारूढ़ भरत पास ही अश्व पर प्रारुढ़ खड़े सुमति मंत्री की मोर को देखते ही उनकी आंखों में स्नेह का स्फुलिंग चमक उठा देखकर बाहुबली ने उल्लसित स्वर में कहा, "मंत्री जी भैया भरत रथ से उतर कर उनके चरणों को छुने के लिए दौड़ा। मा गए !" गद्गद् होकर महाराज ने भरत को अपनी सुदृढ़ बाहुओं सुमति मंत्री ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, "हाँ कुमार, अयोध्या से ऊँचे उठाया और छाती से लगा लिया। उनकी लम्बीका गौरव स्तंभ दिखाई दे रहा है।' लम्बी अंगुलियां उसकी हारी थकी पीठ पर वात्सल्य की मानो स्वीकारोक्ति में दुंदुभी ने खिलखिला कर शोर थपकियां देने लगीं। उन थपकियों में स्नेह की मृदुता थी, मचाया। 'महाबली भरत की जय', 'युवराज भरत की जय' वंश का अभिमान था और मिलन का सुख था। भरत ने के नाद से वायुमंडल का रोमरोम नाच उठा । उत्तर में इस सुख का अनुभव किया और उसके अतिरेक से उसने पलपल निकट प्राती विजय वाहिनी की ओर से दुंदुभि पुकारा : "पिताजी !" बजी और एक श्वेत अश्व उसकी पंक्तियों से निकल कर महाराज ने एक क्षण की अपनी पलकें झपकाई। 'पुत्र, तेजी से मुख्य द्वार की ओर झपटा । कुछ पीछे और अश्व तूने अयोध्या को गौरव दिया है। जो अपने देश का मान भी पाते दिखाई दिए। रखता है वह बड़ा हो जाता है। जब तक सूरज और चांद इधर से बाहुबली का प्रश्व वेग से उछला और तीव्र रहेंगे तेरी बड़ाई को धरती नहीं भूलेगी।" . गति से मागे बढ़ा। पास माने पर दोनों भ्रातृयोगी अश्वा बाहुबली पास ही खड़ा इस तमाशे को मुग्ध नयनों से रोही अपने अपने प्रश्वों से कूद पड़े और एक दूसरे के गले निहार रहा था। उसने प्रफुल्ल होते हुए कहा, "भैया के से लिपट गए। यह था दो अभिन्न भाइयों का प्रेम मिलन साथ धरती को मेरा नाम भी तो याद रखना पड़ेगा न, जिसे देखकर अयोध्यावासियों के हृदय की तरंगे उछल- पिताजी ?" उछल पड़ रही थीं। अयोध्यापति ने कहा, "धरती सदा विजेताओं की ही विशाल परकोटे का मुख्य द्वार भी हर्ष से शोर मचाता याद रखती है। जब तुम विजय करोगे, तो तुम्हारा नाम हुआ खुल गया । हाथियों ने अपनी-अपनी सूड़ें ऊपर उठा भी धरती की छाती पर अंकित हो जाएगा । हम तुम्हें भी कर विजयी सेनानायक भरत का अभिवादन किया। प्रश्वों विजय का अवसर देंगे।" ने हिनहिना कर अपनी परिवर्तित चेतना प्रकट की। एक बार फिर तुमुल जयघोष हुआ। दोनों पुत्रों के दोनों भाई रथ पर चढ़कर खड़े हो गए, ताकि उत्सुक कंधों पर हाथ रख कर महाराज ऋषभदेव राजमहल में जनता उन्हें भलीभांति देख सके । सवारी असंख्य स्वागत चले गए। कारिणी मेखला के साथ अयोध्या के विस्तीर्ण प्रवेश द्वार अभी इस उमड़े हुए उत्साह और उत्सव की धूल भली से भीतर घुसी। साथ ही अयोध्या का एक-एक जीता- प्रकार बैठी भी नहीं थी कि अयोध्या के राजपथ से, जो जागता ध्वनियंत्र जाग उठा। 'अयोध्या के तिलक की जय' अब लगभग अपनी सामान्य अवस्था पर आ गया था, एक 'युवराज भरत की जय। अश्वारोही अपने प्रश्व को दौड़ाता हुमा राजमहल तक
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy