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जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविधि का अशुद्ध प्रचार
लेखक-श्री मिलापचन्द कटारिया,, केकड़ो, (राजस्थान प्रजमेर)
जब से स्व० ७० शीतलप्रसाद जी ने इस जयसेन अच्छे पंडित भटकते थे। अब ब्रह्मचारीजी के इस प्रतिष्ठा प्रतिष्ठापाठको आधार बनाकर उसमें कहीं-कहीं नेमिचन्द्र ग्रन्थ की बदौलत उनको भी भटकने की जरूरत नहीं रही प्रतिष्ठा पाठ के कुछ अंशों का समावेश करके तथा कुछ है। किन्तु यह याद रखना चाहिये कि प्रतिष्ठाचार्य का वातें अपनी तरफ से और मिलाकर एक नये प्रतिष्ठा- पद जितना ही गौरवपूर्ण है उतना ही वह भारी जोखम पाठपथ का प्रकाशन किया है तब से बहुत करके उसी के का भी है। जो प्रतिष्ठाचार्य अंटसंट प्रतिष्ठाविधि करते हैं आधार से कई बिम्पप्रतिष्ठायें हुई हैं और हो रही है। वे अपना बहुत ही अहित कर रहे है। धातु पाषाण उसमें उन्होंने याग मण्डल पूजा आदि कुछ प्रकरणों को की निराकार मूर्ति में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा करना हिन्दी छन्दों मे भी लिख दिया है जिससे उनका उपयोग कोई हंसी खेल नहीं है। प्रतिष्ठा जैसे गुरुतर कार्य हिन्दी के ज्ञाता भी गा-बजा कर कर लेते हैं। साथ ही के लिये पल्लवग्राही पांडित्य से काम नहीं चला करता है। उन्होंने उममें पंचकल्याणकों के दृश्य ऐसे नाटकीय ढंग से इसके लिये मंत्र, तंत्र, वास्तु विद्या, शकुन, निमित्तज्ञान, लिखे हैं कि तदनुमार दृश्य दिखा देने से साधारण जनता ज्योतिष आदि विविध विषयों का परिज्ञान होना चाहिये। का खूब मनोरंजन होता है; फलत: दर्शक लोग अधिक संख्या साथ ही प्रतिष्ठाचार्य खुद भी जितेन्द्री, सुलक्षण, सदामें एकत्रित होते है और मेले की रौनक बढ़ जाती है उससे चारी, देशकाल का ज्ञाता, नम्र, मंदकसायी, देव-शास्त्र
धन खर्च करने वाला यजमान भी अपने को धन्य समझने गुरु का अनन्य भक्त, मान्य, प्रभावक आदि लक्षणों का • लगता है और उससे प्रतिष्ठाचार्य की भी महिमा बढ़ धारी होना चाहिये। इसी वजह से पुराने जमाने में दूर
जाती है। अगर कोई प्रतिष्ठाचार्य इस ढंग से काम न दूर तक कोई विरले ही प्रतिष्ठाचार्य मिलते थे। आज की करे तो उसकी प्रतिष्ठा लोगों को फीकी-फीकी सी प्रतीत तरह वे सुलभ नहीं थे। उस वक्त के प्रतिष्ठापक-यजमान होती है। लोगों को मजा नही आता इससे प्रतिष्ठापक का भी विचारवान होते थे। वे भी ऐसे ही प्रतिष्ठाचार्यों से दिल भी मुरझा जाता है और विचारे बसे प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा विधि कराना योग्य समझो थे और उन्हें बड़े ही को तो पायंदे किसी प्रतिष्ठा में बलाना भी कोई नही पादर-मान से लाते थे। उस आदर-सन्मान का वर्णन चाहता है। उधर नाटकीय ढग से प्रतिष्ठा करने वाले प्रतिष्ठा शास्त्रो में भी लिखा मिलता है। प्रतिष्ठाचार्यों की भी अब कोई कमी नहीं रही है और न ब्रह्मचारी जी के इस प्रतिष्ठा ग्रंथ में प्रतिष्ठा विधि रहेगी; क्योकि स्व. ब्रह्मचारी जी ने प्रतिष्ठा की सब विधि सम्बन्धी कुछ ऐसे कथन भी मिलते हैं जो न तो जयसेन हिन्दी में लिख दी है। अतः अब तो इसने लिय संस्कृत प्रतिष्ठा पाठ में है और न अन्य किसी प्रतिष्ठा ग्रंथ में ही । भापा के ज्ञान होने की भी ऐसी कोई खास जरूरत नहीं केवल ब्रह्मचारी जी के प्रतिष्ठा ग्रन्थ में लिखे होने से ही रही है पीर न किमी गुरु की खुशामद की । एक दो नाट- इदानी उनका प्रचार हो रहा है । नीचे हम इसी का दिग्दकीय उंग की प्रतिष्ठा ब्रह्मचारी जी के प्रतिष्ठा ग्रन्थ से र्शन कराते है-यहा हम उन्ही अशुद्धियों पर विचार करा दीजिए; नाम हो जायगा, फिर तो जगह-जगह से करते है जो खास प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्ध रखती है। निमन्त्रण ही निमन्त्रण है।
(१) पृ० १४१ में मुख वस्त्र विधि का वर्णन करते प्रतिष्ठाचार्य का पद एक बड़ा सम्मान का पद है और हुए ब्रह्मचारी जी ने लिखा है कि-"एक शुद्ध वस्त्र में इसको कोई-कोई तो अर्थोपार्जन का साधन भी बना लेते सात प्रकार अनाज वाँध कर प्रतिमा के मुख पर ढक कर हैं। इस पद की प्राप्ति के लिए कई संस्कृत के अच्छे- लपेट दे। तथा ग्रागे जौ की माला रख दे।" एक प्रसिद्ध