SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त वर्ष १५ उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रचार द्वारा हम अपनी मान्यता प्रश्न-इतिहास साक्षी है कि मातताइयों ने सदा का प्रचार कर रहे हैं, जो दूसरों की मान्यता से टक्कर में सशक्त और हिंसा के बल से अपने धर्म का प्रचार किया । पाती है लेकिन आस्तिक्य चरितार्थ प्रेम में होता है । प्रेम इसे आप क्या कहेगे, आस्तिकता की अधिकता या न्यूनता? में व्यक्ति अनायास विस्तार पाता है। यह विस्तार उसमें उत्तर-न्यूनता, बल्कि अभाव । मैं समझता हूँ कि अपने को खोने की तैयारी में से मिलता है। मैं अपने स्व- आदमी अत्याचार जिस पर करता है वह उपलक्ष्य नहीं त्व को पर में खो देने को आतुर होता हूँ, तभी प्रेम की होता है, लक्ष्य वह स्वयं होता है। क्रोध में मां बच्चे को अनुभूति पाता हूँ। अर्थात् प्रेम के माध्यम से ही आस्तिक्य मारती है तो वह असल में अपने को मार रही होती है। का प्रचार जिस मात्रा मे हो उतना ही इष्ट है । प्रेम से ऐसे ही वे मास्तिक जन जो सत्ता और शस्त्र लेकर उसकी अन्यत्र एवं अन्यथा उपाय से प्रचार प्रास्तिक्य का नहीं; प्रतिष्ठा में लगे, असल में कहीं अपने भीतर की शंका से ही आग्रह का होता है, मतवाद का होता हैं, और उसमें से लड़ना चाह रहे थे । अतः मैं मानता हूँ कि आततायी मूलतः प्रतिवाद, विवाद या वितंडा फलित होता है। दयनीय होता हैं । अातंक के द्वारा वह अपने अहम् की तुष्टि प्रश्न-एक प्रास्तिक के ऊपर, आपकी दृष्टि में क्या चाहता है। अस्त्र शस्त्र के योग से वह जिस आतंक की और कितनी जिम्मेदारी आती है ? सृष्टि करता है, उससे उसे कुछ अपने महत्त्व का आभास उत्तर-प्रेम उस परम दायित्वशीलता का ही नाम है मिलता है। आतंक यदि वह न डाल सके तो उसे ही गहरी प्रेम को सेवा विना तृप्ति नहीं । प्रेम के सम्बन्ध में एक विफलता का बोध होता है । आतंक यदि लोग स्वीकार अपने को दूसरे से श्रेष्ठ नहीं मान पाता । जब जानबूझ कर न करें ती अत्याचारी और आततायी देख पाये कि वह दूसरे को ज्ञान देने, उसका सुधार करने, कल्याण करने का भीतर से रुग्ण पुरुष है, महापुरुष नहीं है। इतिहास के दायित्व प्रोढ़ते हैं, तो इससे हमारे अहंकार को स्वाद और जिन कतिपय उदाहरणों को आप याद करके पूछते है कि आधार मिलता है। दुनिया को प्रकाश और सद्ज्ञान देने क्या जोर के माथ हित का और मत् का प्रचार नहीं किया के दावे में अपने अहंकार का मद यत्किचित् समाया ही जा सकता, तो हाँ, मुझे कहना होता है कि जोर का प्रेम रहता है। ऐसे उपकारीजन अत्याचारी बनगए देखे जाते के साथ मेल नही है । हित और सत्य के साथ भी उसका हैं। जान-मानकर जब दूसरों के प्रति हम कोई दायित्व मेल नही है अच्छाई और सच्चाई के लिए हिमक बल का उठाते है तो जैसे उस दूसरे के अहम् का सही सम्मान नहीं जिन्होंने उपयोग किया, उनमें कही आस्तिक्य की न्यूनता करते है। प्रेम में यह पर-पना पूरी तरह भरा रहता है। अवश्य रही, यह मेरे लिए स्पष्ट है । सत्य के साथ बल के प्रेम से चलकर व्यक्ति अपने को नेता, गुरु अथवा उद्धारक रूप मे हिसा का ही योग हो सकता है । मूक्ष्म में अहिंमान नहीं पाता। वह सेवक बनता है। इससे अनायास सक बल ही सच्चा बल है। जिसमें किसी का सत्व संकुचित दूसरे के प्रहं को संस्कार मिलता है, धार नहीं मिलती। नही होता, परस्परता मे मिलकर गुणानुगुणित ही होता इसलिए मेरा मानना है कि जिसने सचमुच पास्तिक्य पाया जाता है : अहिसा के युद्ध में भी सर्वोदय है। हो वह विनम्र और प्रादरशील ही हो सकता है, प्रचार प्रश्न—यह सृष्टि कैसे सृष्टि में आई ? और इसका और उद्धार का दावा उसमें नही दीख सकता । इस आदर फैलाव किस प्रकार हुग्रा? शीलता में दायित्व-शीलता सहज ही देखी जा सकती है। उत्तर-विज्ञान इसकी खोज में है। उसने कुछ कल्पअर्थात् ऐसा व्यक्ति अपने में लीन व मग्न नहीं रह पाता नाएं भी इस बारे में हमें दी है। मैं समझता हूँ कि विज्ञान उसे अपनी मग्नता सब पोर लुटानी और बांटनी होती है। की बात को हमें स्वीकार करना चाहिए । ब्रह्मांड के और मानन्द वही है जो अपने में घिरा-सिमटा बन्द नहीं रह सृष्टि के बारे में विज्ञान क्या व्याख्या देता है, यह शायद सकता, सब पोर मानों बाहें पसार कर फैलना चाहता है। आप मुझसे सुनना नहीं चाहते । मेरा उधर बहुत अधिक मानन्द और दायित्व में कोई विरोध नहीं देखता हूँ। ध्यान भी नहीं है । पर विज्ञान की अंतिम से अंतिम खोज
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy