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________________ किरण २ जैन अपशका मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रमाण ६३ योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में लिखा है-मणु मिलियउ कह कर अपने नित्य, निरंजन और ज्ञानमय परमात्मा को परमेसरह परमेसरु वि मणस्स । बी हि वि समरसि-हूवाह परमानन्द स्वभाव वाला घोषित किया। एक दूसरे दोहे पुज चडाव कस्स । अर्थात् मन परमेश्वर में और में 'केवल सुक्ख-सहाउ' लिखा,' अर्थात् उसका स्वभाव परमेश्वर मन में मिल कर समरसीभूति हो गये, तो फिर पूर्ण सुख रूप है. ऐसा कहा । 'परम मुख' और 'परमानन्द' मैं अपनी पूजा किसे चढ़ाऊँ।' एक दो शब्द के हेर-फेर पर्यायवाची हैं। तात्पर्य हुआ कि परमानन्द और केवल से मुनि रामसिंह ने भी लिखा-"मगु मिलियउ परमैसर सुख स्वभाव वाले ब्रह्म से जिसका तादात्म्य होगा वह भी हो परमेसरु जि मणस्स । बिप्णि वि समरमि हुइ रहिय तद्रूप ही हो जायगा । इस मानन्द को पूर्णतया स्पष्ट पुज्ज चडाव कस्स :" दोनों की भाषा में यत्किञ्चित् करते हुए उन्होंने एक पद्य में लिखा-समझाव में प्रतिमन्तर के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है। मुनि प्रानन्द ष्ठित योगीश्वरों के चित्त में परमानन्द उत्पन्न करता हुमा तिलक ने भी समरस के रंग की बात लिखी है। उनका जो कोई स्फुरायमान होता है, वह ही परमात्मा हैं।' कथन है-समरस भावे रगिया अप्पा देखइ सोइ । अप्पउ अर्थात प्रात्मा जब परमानन्द का अनुभव कर उठे, तो जाणइ पर हणइ पाणंदा करइ णिरालंब होइ॥' समझो कि परमात्मा मिल गया है । 'परमान्द' के 'परम' प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य से उत्पन्न होने की व्याख्या करते हुए उन्होने उसे अद्वितीय का वाचक वाला मानन्द केवल कबीर के भाग्य में ही नहीं बदा था। लिखा है। उनका कथन है-शिवदर्शन से जिस परम बनारसीदास को भी मिला और उन्हें उसका स्वाद कामधेनु, सुख की प्राप्ति होती है, वह इस भवन में कही भी नहीं वित्राबेलि और पंचामत भोजन जैसा लगा।' उनकी है। उस अनन्त सुख को इ.द्र करोगे देवियों के साथ रमण दृष्टि में रामरसिक और रामरस पृथक नहीं रह पाते, दोनों करने पर भी प्राप्त नहीं कर पात।।'' टीक यह ही बात एक हो जाते हैं । द्यानतराय ने उम आनन्द को गूगेके गुटके मूनि रामसिंह ने पाहुड़-दोहा मे लिखी है-"तं सुहु इंदु समान कहा, जिसका अनुभव तो होता है किन्तु कहा नहीं वि णउ लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।"" उन्होंने यह भी जा सकता। कबीर ने इसी को 'गंगेकरी शर्करा बैठे लिखा कि जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया, ही मुसकाप' कह कर प्रकट किया था। समरसता से वह परमगति को पा जाता है। यह परमगति, परम उत्पन्न होने वाले इस मानन्द की बात कबीर से कई शताब्दी ७. णिच्चु णिरजणु णाणमउ परमाणंद सहाउ । जिन nिimm पूर्व प्राचार्य योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में स्वीकार की ___ जो एहउ सो सतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ।। १।१७ थी। उन्होंने "णिच्चु णिरंजण णाणमउ परमाणंद-सहाउ" ८. केवल दंसण-णाणमउ केवल-सुक्ख-सहाउ। १. परमात्म प्रकाश, १११२३ (२) पृ० १२५ __ केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावर भाउ॥१॥ २. पाहुडदोहा, ४६ वां दोहा, पृ १६ ६. जो सम-भाव-परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेउ। ३. देखिए मामेरशास्त्र भण्डार जयपुर की 'पागंदा' परमाणंदु जणतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥५॥ की हस्तलिखित प्रति 60 वां पद्य । १०. जं सिव-दसणि परम-सुहु पावहि भाणु करंतु । ४. अनुभौ के रस को रसायन कहत जग, तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मल्लिवि देउ प्रणतु ___ अनुभौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है । ॥११॥ अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, जं मुणि लहइ अणत सुहु णिय-प्र.पा झायतु । अनुभौ को स्वाद पंच अमृत को कौर है । तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु॥११७ बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई वि० सं० ११. जं सुहु विसय परं मुहउ णिय अप्पा झायंतु । १९८६, पृ०१७ तं मुहु इंदु वि णउ लहइ दविहिं कोडि रमंतु ॥३॥ ५. देखिये वही १२. जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलइ चित चवेवि ६. थानतविलास, कलकत्ता, ६० वां पद, पृ०२५ सो पर पावइ परमगइ अट्ठई कम्म हणेवि ॥६६॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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