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________________ बात परंतु जो लोग इस बात से अपरिचित हैं वे लोग जैन ग्रंथ दिया। परंतु अन्यत्र भी, वृत्तिकार पूर्वापर का मनुसंधान के वृत्तिकार होकर भी अपनी कल्पित पद्धति से इस ख्याल में रखते तो कभी ऐसी मनः कल्पित परिस्थिति न शब्द का अर्थ 'लिप्सुक' करते हैं और लिप्सुक माने "बनिया पाती। अस्तु, प्रस्तुत में प्राचार्य शीलांक सूरि तथा प्राचार्य वगैरह" अर्थ बताते हैं यपि 'लिप्सुक' शब्द का ठीक अभयदेवसूरि को ही लक्ष्य में रखकर वृत्तिकार शब्द का प्राकृत 'लिच्छम' होगा, 'लेच्छह'नहीं-कभी नहीं होगा प्रयोग हुमा है अन्य वृत्तिकारों को नहीं, यह ध्यान में रहे। फिर भी बराबर अर्थ का अवगमन न होने से किसी भी चौथी बात-नथमलजी मुनि ने लिखा है कि इतिहास तरह तोड़ मरोड़ कर 'लिच्छुम' और 'लेच्छई' को एक में 'ज्ञात' वंश की प्रसिद्धि नहीं है किन्तु 'नाग' वंश की मान कर अपना प्राशय व्यक्त करते हैं। ये वृत्तिकार जहां प्रसिद्धि है अतः नाय वा णाय का 'नाग' अर्थ करना चाहिए 'लेच्छह लेख्छइपुत्ता' उल्लेख माया है, उस प्रसंग का मुनिजी ऐसा मानते हों कि इतिहास प्रसिद्ध विचार वा वस्तु बराबर सावधानी से विचार करने वा वाक्य के संदर्भ से प्रामाणिक है और अन्यथा प्रकार के विचार वा वस्तु तथा "उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता" वगैरह शब्दों के प्रामाणिक नहीं तो जैन परम्परा की अनेक हकीक़तों को साहचर्य को देखकर विचार करते तो उनको मालूम होगा अप्रामाणिक मानने की स्थिति आ जायगी। कि जैसे उग्र, भोग शब्द वंश सूचक है वैसे ही यह 'लेच्छइ' जैन परम्परा में जितनी-जितनी हकीकतें बताई गई हैं शब्द भी वंश सूचक है परन्तु वृत्तिकार को इस जगह यह वे सभी क्या इतिहास प्रसिद्ध हैं ? देखिए अरिष्टनेमि ख्याल नहीं पाया और कल्पना से संस्कृत 'लिप्सुक' शब्द तीर्थकर, पावं तीर्थकर, पार्श्व के पिता अश्वसेन, महावीर स्मृति में आ गया, बस तब उनके मनका समाधान हो गया के पिता सिद्धार्थ वगैरह क्या ये सब इतिहास प्रसिद्ध है ? कि 'लेच्छई' माने लिप्सुक परन्तु संदर्भ से यह अर्थ प्रस्तुत यदि हैं तो मुनिजी को नम्रतापूर्वक सूचन है कि ये सब जिस में सर्वथा प्रसंगत है यह बात वृत्तिकारों के ख्याल में नहीं इतिहास में प्रसिद्ध हों उसका साधार खुलासा देकर सारा पाई। आगमों की वृत्तियों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां हाल मुनिजी को बताना जरूरी होगा। जैन इतिहास में वत्तिकारों ने केवल अपने कल्पित संस्कृत रूप के आधार प्रसिद्ध है ऐसा कहकर मुनिजी संतोष नहीं दे सकेंगे; क्योंकि पर अर्थ करने में अनेक गोते खाये हैं और अपनी भ्रांत जैनइतिहास में तो ज्ञात वंश प्रसिद्ध ही है नाग वंश की स्थिति का केवल प्रदर्शन किया है 'वुसीमों' ! 'भड़े इतनी प्रसिद्धि नहीं, जितनी ज्ञात वंश की । अतः इतिहास 'जोहे! वज्जी ! 'दंतवक्के! बीससेणे' वगैरह ऐसे अनेक प्रसिद्धता का हेतु नहीं है किन्तु हेत्वाभासमात्र हैं। शब्दों को उदाहरण के रूप में दिया जा सकता है परन्तु पांचवी बात-प्राकृत भाषा अरबी, फारसी वगैरह प्रस्तुत में ऐसा लिखना उचित नहीं। मन्मान्य भाषाओं की तरह स्वतन्त्र भाषा है जैसे अरबी तीसरी बात-लेच्छद का अर्थ टीकाकार कहीं कहीं फारसी अवेस्ता वगैरह भाषाओं के शब्दों का अर्थ संस्कृत वंश विशेषरूप भी नहीं करते हैं ऐसा नहीं है । देखिए विया- भाषाके कल्पित शब्द के अधीन नहीं है वैसे ही प्राकृत भाषा हपण्णत्ति सूत्र में जहाँ महाशिला कंटक संग्राम की चर्चा के पाब्दों का मर्थ संस्कृत भाषा के स्वेच्छा कल्पित शब्दों के पाती है वहाँ मूल में लिखा है कि "गोयमा" वज्जी विदेह अधीन कभी भी नहीं है परन्तु एक समय ऐसा पाया जब पुत्ते जइत्था, नव. मल्लई नव लेच्छई कासी कोस- जैन संघ निस्तेज सा हुमा और केवल तप प्रधान होकर लग्ग अट्टारस वि गणरायाणो पराजइत्था" इस पाठ में व्यक्तिगत मोक्ष की बात में ही डूबा रहा, तब महाभाष्य'लेच्छई' शब्द का अर्थ बताते हुए वृत्तिकार ने लिखा हैं कार पतंजलि ने अपने पुरुषार्थ से जिस प्रकार अश्वमेधादि कि "लेच्छकिनश्च राजविशेषाः" मूल में ही 'गणरायाणों' यज्ञों का पुनः प्रवर्तन शुरू किया उसी प्रकार संस्कृत भाषा विशेषण दिया है, अतः इधर वृत्तिकार को सावधान का महाप्रभावशाली युग शुरू किया। तब से प्राकृत भाषा होकर विवेचन लिखना पड़ा, अन्यत्र ऐसा कोई विशेषण संस्कृत के अधीन सी हो गई और हमारे संघ ने इस अधीन होने से अपना कल्पित संस्कृत रूप देकर अर्थ बता (पृष्ठ २९० पर)
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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