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________________ किरण २ ऐहोले का शिलालेख होता है। विदित होता है कि इस समय पुलकेशी वैभ- सुन्दर पद्यों को कृष्णमूर्ति जी गद्गद हो मुझे सुनाने लगे। वोन्नत शिखर पर प्रारून हो, अपनी दिग्विजय को पूरा उन्हीं से मालूम हुमा कि रविकीति का यह शिलालेख पूर्वोक्त करके वातापि राजधानी में लौटकर, सुचारु रूप से राज्य विश्वविद्यालय सम्बन्धी एम. ए. की कक्षा में रखा भी शासन करता रहा। अब विज्ञ पाठक ऐहोले के गौरवपूर्ण गया है । कविता में उच्चकोटि के माधुर्य, सौकुमार्यादि शिलालेख से भाषा साहित्य का क्या उपकार हुआ यह काव्योचित्त सभी गुण मौजूद है। लेख में शब्दों का स्वाभी देख लें। मित्व, व्याकरण-छंद-अलंकार आदि का अभ्यास, कालियद्यपि कई शताब्दियों के पूर्व ही कर्णाटक में संस्कृत दास, भारवि मादि महाकवियों की कृतियों का गाढ़ परिभाषासाहित्य को विशिष्ट गौरव मिल चुका था। प्राचार्य चय मादि बातों को देखने से रविकीर्ति एक सामान्य कवि समंतभद्र, प्राचार्य पूज्यपाद प्रादि महर्षियों की प्रमूल्य न हो कर, निःसंदेह एक उच्चकोटि के प्रतिष्ठित महाअमर कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी थीं। फिर भी मनीषी कवि सिद्ध होते हैं। पर खेद की बात है कि प्रभी तक रविकीर्ति का यह महत्वपूर्ण लेख विशेष उल्लेखनीय है। आपका कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हपा। यद्यपि भारतीय राजाओं की प्रशंसा करने वाले गद्यपद्यात्मक संस्कृत प्रशस्तिकाव्य, साहित्य एवं शिलालेखों एक बात और है। महाकवि कालिदास के काल के में यत्र-तत्र उपलब्ध अवश्य होते हैं। पर ऐसे स्ततिपरक विचार में विद्वानों में गहरा मत भेद है। पर महाकवि खंडकाव्यों में प्रस्तुत लेख एक विशिष्ट स्थान को प्राप्त की चारित्रिक जिज्ञासा में यह लेख एक महत्वपूर्ण स्थान है । इस लेख के लेखक रविकीर्ति, महाकवि कालिदास और रखता है । क्योंकि रविकीति का यह लेख महाकवि के काल भारवि की समश्रेणी में अपने को गिनाते हैं। कतिपय की एक निश्चित सीमा को निर्धारित करता है। कालीविमर्शकों को यह अतिशयोक्ति मालूम दे सकती है। पर दास के शुभ नाम को सर्वप्रथम उल्लेखित करने वाला कवि के असाधारण पाण्डित्य एवं काव्य प्रतिभा को देख शिलालेख यह ही एक है। इस महाकवि की ख्याति कर यह कदापि अत्युक्ति मालूम नहीं देती । वस्त. इनकी सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, दक्षिण भारत जैसे सुदूर कविता को पढ़ कर प्रत्येक सहृदय विद्वान् मुक्त कंठ से देश में जब फैली हुई थी, तर इसमे कतिपय शताब्दियों के प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। बल्कि हाल पूर्व ही महाकवि जीवित रहा होगा। यों प्रासानी से ही में कर्णाटक विश्वविद्याला धारवाड़ के संस्कृत-विभाग अनुमान किया जा सकता है। सारांशतः लिपि, भाषा के प्रधान, सहृदय डा० के० कृष्णमूर्ति एम० ए०, पी० एच० साहित्य और इतिहास प्रादि अनेक विशेषतामों को प्राप्त डी से इस शिलालेख के विषय में जब बात चीत हुई ऐहोले का यह शिलाले व कणांटक की एक चिरस्मरणीय थी, तब डाक्टर साहब ने रविकोति की इस कविता की बहुमूल्य निधि है। जैन समाज के लिए भी यह लेख एक मुक्तकंठ से प्रशंसा की। इतना ही नहीं, कविता के कतिपय गौरव की वस्तु है। बकान्योक्ति मौनि करि ठाढो बक मुंह न हलावं पग ध्यान धर बंठो ठग पंष न पसार है। चूंच नासा नैन पल ग्रीवा भी संकोच गल अचल शरीर थल करै तिहं वार है । तपी पासी दिशा लीये मैलो मन माहि किए बाहिर सफेदी दिए अंतर विगार है। अमर जालूं पागे पाय परत न मीन धाय कपट भनेक भाय तोलू बकाधार है।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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