SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्लेश, दुःख और सन्ताप का भूतिमान रूप दिखलाने के वाही बतलाने के लिए कावड़ी का बिम्ब उपस्थित किया लिए बन बिम्ब की योजना की है। वन जैसे विराट, गया है जिस प्रकार कावड़ी द्वारा मजदूर निरन्तर बोझा विशाल और भयंकर होता है तथा इसमें नाना तरह के ढोता रहता है, और उससे रहित होने पर सुखी होता है; हिंसक पशु व्याप्त रहते हैं, उसी प्रकार कर्मबन्धन भी उसी प्रकार यह संसारी जीव काय के द्वारा कर्मरूपी बोझा स्थिति और अनुभागबन्ध की अपेक्षा सघन और भयंकर को नाना गतियों में लिये चलता है तथा काय और कर्म है। नाना प्रकार के कष्ट, जन्म-मरण आदि कर्मों के कारण के प्रभाव में परम सुखी होता है । यद्यपि गाथा में कावड़ी ही होते हैं। अत: बन बिम्ब कर्मों का साङ्गोपाङ्ग स्वरूप का दृष्टान्त दिया गया प्रतीत होता है, पर यह वास्तव में उपस्थित करता है। बिम्ब है। कावड़ी शब्द हमारे मानस पटल में एक ऐसी वन को भस्म कर मैदान तैयार किया जाता है। प्रतिमा अंकित कर देता है, जो भारवाहक की भावभूमि भस्म करने के लिए अग्नि की पावश्यकता होती है । अतः का पूर्ण चित्र है; उसकी बाह्योन्मुखी स्वाभाविक प्रति. यहाँ ध्यान को अग्नि की लपटों का बिम्ब दिया गया है। क्रियों का बिम्ब है। इस बिम्ब द्वारा काय-शरीर का कर्मों का विनाश, उनकी गुणश्रेणी निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्वभाव, क्रिया-प्रक्रियाएं और उसकी बाहोपाधि स्पष्ट स्थितिखण्डन और अनुभागकाण्डकखण्डन प्रादि कार्य हो जाती है। अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्नि की शिखामों की सहा- तिणकारिसिट्टपागग्गि'-तृण-कारीष-इष्टपाक-अग्नि । यता से सम्पन्न होता है। अतएव ध्यान को अग्निशिखा पुरुषवेद स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में होने वाले कषाय परिपौर कर्म को वन का बिम्ब दिया गया है। णामों की तीव्रता और मन्दता व्यक्त करने के लिए उक्त कम्मरय'-कर्मरज । कर्मों का स्वरूप और स्वभाव बिम्ब पाये हैं । पुरुषवेद में होने वाले कषायभावों का बतलाने के लिए रज-धूलि का बिम्ब उपस्थित किया गया __ स्वरूप प्रकट करने के लिए तण-अग्नि का बिम्ब उपस्थित है। लि का कार्य किसी भी स्वच्छ वस्तु को मलिन करना किया है। तृणाग्नि कुछ समय तक प्रज्वलित रहती है, है। यदि वस्तु चिकनी होगी तो उस पर धूलि और अधिक पुनः शान्ति हो जाती है । एक क्षण के लिए ही प्रकाशित चिपकेगी तथा उस वस्तु को अधिक समय तक मलिन होती है, साथ ही यह एक विशेषता भी है कि थोड़ी सी बनाये रखेगी। इसी प्रकार राग-द्वेष रूपी तैल से लिप्त हवा के चलने या किसी अन्य निमित्त के मिलने से तृणाग्नि मात्मा में कर्म-रज चिपकती है और मात्मा को मलिन बना प्रज्वलित हो जाती है। इसी प्रकार पुरुषवेद में थोड़े से उसके ज्ञान, दर्शन और सुखादि को आच्छादित कर देती निमित्त के मिलने से राग उत्पन्न हो जाता है। पर यह है। प्राचार्य ने प्रयोगकेवली का स्वरूप बतलाते हुए कर्मों रागभाव टिकाऊ नहीं होता; क्षणविध्वंशी होता है। की निर्जरा प्रदर्शित करने के लिए 'कम्मरयविप्पमुक्को- तृणाग्नि के समान क्षण भर में प्रज्वलित और क्षणभर में कर्म रज से रहित कहा है। रज का बिम्ब कमों के सम्बन्ध शान्त होने वाला होता है । स्त्रीवेद में होने वाले कषाय परिमें पूर्ण स्वच्छ और साङ्गोपाङ्ग चित्र उपस्थित करता है। णाम कारीष अग्नि के समान हैं। कारीष भग्नि-अंगारे रज-धूलि जिस प्रकार किसी स्वच्छ वस्तु को पाच्छादित की अग्नि राक्ष से दबी रहने पर भी दहकती रहती है और कर मलिन बना देती है, उसी प्रकार कर्म भी प्रात्मा को पर्याप्त समय के पश्चात् शान्त होती है। इसी प्रकार स्त्रीमलिन बनाते हैं । रज द्वारा कर्मों का स्पर्श, रस, वेद में रागभाव भीतर ही भीतर प्रज्वलित रहता है। गन्ध और वर्णयुक्त होना भी सिद्ध होता है। रज विम्ब पर्याप्त समय के पश्चात् राग शान्त होता है। कारीष यथार्थ है। अग्नि की विशेषता यह है कि यह कुछ अधिक या महत् कावलियं-कावटिका । शरीर को प्रात्मा का भार निमित्त मिलने पर उद्दीप्त होती है तथा इसका उपशमन भी कुछ अधिक समय के बाद होता है । यह मग्नि पषिक १. वही गाथा ६५ २. वही गाथा २०१ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० २७५
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy